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आत्मानुशासनम् ... श्लो० १०६प्रतीहि भव्य प्रतिलोमवृत्तिभिः ध्रुवं फलं प्राप्स्यसि तद्विलक्षणम् ॥ १०६॥ दयादमत्यागसमाधिसंततेः पथि प्रयाहि प्रगुणं प्रयत्नवान् । नयत्यवश्यं वचसामगोचरं विकल्पदूरं परमं किमप्यसौ ॥१०७॥
दिभ्यः प्रतिकूलप्रवर्तिभिः सम्यग्ज्ञानवैराग्यादिभिः । ध्रुवं निश्चयेन नित्यं वा । तद्विलक्षणं जननादिविलक्षणम् ।।१०६ ।। इत्थंभूतं च फलमभिलषस्तस्मिन् मार्गे गच्छेत्याह-- दयेत्यादि । दयादमत्यागसमाधीनां संततिः प्रवाहः तस्याः । संबन्धिनि पथि मार्गे। प्रयाहि गच्छ । प्रगुणं मायादिवर्जितं यथा भवति । विकल्पदूरं विकल्पाविषयम् । वचसाम् अगोचरम् । यत् परमम् उत्कृष्टम् । किमपि मोक्षादम् । असौ फन्याः ॥ १०७ ।। विवेकपूर्वकपरिग्रहत्यागरूपः पंथा:
निश्चयसे उसके विपरीत फल- अजर-अमर पद- को प्राप्त करेगा, ऐसा निश्चय कर ॥१०६॥ हे भव्य ! तू प्रयत्न करके सरल भावसे दया, इन्द्रियदमन, दान और ध्यानकी परम्पराके मार्गमें प्रवृत्त हो जा । वह मार्ग निश्चयसे किसी ऐसे उत्कृष्ट पद (मोक्ष) को प्राप्त कराता है जो वचनसे अनिर्वचनीय एवं समस्त विकल्पोंसे रहित है। विशेषार्थ- दीन-दुखी प्राणियोंको देखकर उनके साथ जो हृदयमें सहानुभूतिका भाव उदित होता है वह दया कहलाती है। यह धर्मको जड है, क्योंकि उसके विना धर्म स्थिर रह नहीं सकता। कहा भी है-धर्मो नाम कृपामूलं सातु जीवानुकम्मनम्। अशरण्यशरण्यत्वमतो धार्मिकलक्षणन् । अर्थात् धर्मको आधारभूत दया है और उसका लक्षण है प्राणियोंके साथ सहानुभूति । इसलिये जो भरक्षित प्राणियोंकी रक्षा करता है वही धार्मिक माना जाता है । क्ष. चू. ५--३५. दूसरे शब्दसे इस दयाको अहिंसा कहा जा सकता है और उस अहिंसामें चूंकि सत्यादिका भी अन्तर्भाव होता है अतएव वह दया पंचव्रतात्मक ठहरती है। दमका अर्थ है राग-द्वेषके दमनपूर्वक इन्द्रियोंका दमन करना- उन्हें अपने नियन्त्रणमें रखना अथवा स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त न होने देना । इसे दूसरे शब्दसे संयम भी कहा जा सकता है जो इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयमके भेदसे दो प्रकारका है। त्यागसे अभिप्राय बाह्य