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अभुक्त्वैव त्यागः श्रेष्ठः
विज्ञाननिहतमोहं कुटीप्रवेशो विशुद्धकायमिव । त्यागः परिग्रहाणामवश्यमजरामरं कुरुते ॥१०८॥ अभुक्त्वापि परित्यागात् स्वोच्छिष्टं विश्वमासितम् । येन चित्रं नमस्तस्मै कौमारब्रह्मचारिणे ॥१०९॥
जीवस्य मोक्षपदप्रापकः इसिसमर्थयमानः प्राह-विज्ञानेत्यादि (विज्ञान) विशिष्ट ज्ञानं तेन निहि(ह)तः स्फेटितो मोहः यत्र कर्मणि । कुटीप्रवेशः परपुरप्रवेशो रसायन क्रिया वा । अजरामरं जरा च मरणं च जरामरणे ताभ्यां रहितं मुक्तात्मानम्।।१०८।। विवेकपूर्वकं परित्यागं कुर्वतां मध्ये सर्वोत्तमं परित्यागं कुर्वन्तं प्रशंसयन्नाह- अभुक्त्वेत्यादि । स्वोच्छिष्टं स्वस्य उच्छिष्टं स्वयं परित्यक्तं पृथिव्यादि । विश्वं जगत् । आशितं भोजितम् । कौमारब्रह्मचारिणे बालब्रह्मचारिणे । कुमारीभिः प्रथमं परिवृतः, न च परिणयनं कृतं कौमारः। कुमारात्प्रायम्ये अण्।।१०९॥ इत्यंभूतपरित्यागकारिणः
और अभ्यन्तर परिग्रहके त्याग एवं दानका है। समाधिसे तात्पर्य धर्म और शुक्लरूप समीचीन ध्यानसे हैं । इस प्रकार जो विवेकी जीव मन, वचन और कायकी सरलतापूर्वक उपर्युक्त दया आदि चारोंकी परम्पराका अनुसरण करता है वह निश्चयसे अविनश्वर पदको प्राप्त करता है ।।१०७॥ विवेकज्ञानके द्वारा मोहके नष्ट हो जानेपर किया गया परिग्रहोंका त्याग निश्चयसे जीवको जरा और मरणसे रहित इस प्रकार कर देता है जिस प्रकार कि कुटीप्रवेश क्रिया शरीरको विशुद्ध कर देती है ॥१०८॥ आश्चर्य है कि जिसने स्वयं न भोगते हुए त्याग करके अपने उच्छिष्टरूप विश्वका उपभोग कराया है उस बालब्रह्मचारीके लिये नमस्कार हो ।। विशेषार्थ-जिसने राज्यलक्ष्मी आदिके भोगनेका अवसर प्राप्त होनेपर भी उसे नहीं भोगा और तुच्छ समझकर यों ही छोड दिया है वह सर्वोत्कृष्ट त्यागी माना गया है । जैसे किसीको पहिले कुमारियोंने वरण कर लिया है, परंतु पश्चात् उसने उनके साथ विवाह न करके ब्रह्मचर्यको ही स्वीकार किया हो वह बालब्रह्मचारी उत्कृष्ट ब्रह्मचारी गिना गया है। यहां ऐसे ही सर्वोत्कृष्ट त्यागीको नमस्कार किया गया है कि जिसने