________________
१०४
आत्मानुशासनम्
[ श्लो० ११०
अकिंचनोऽहमित्यास्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः । योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥११०॥
परमोदासीनतालक्षणं चारित्रं प्रतिपादयन्नाह-अकिंचनेत्यादि मम न किंचन अस्ति इति भकिंचनोऽहमित्येवं आस्स्व तिष्ठ। रहस्यम् अन्तस्तत्त्वं यत्र कुत्रचित् अप्रकाश्यं गूढकारणम्।।११०॥अदानीं तपआराधनास्वरूपोपक्रमाय दुर्लभेत्याद्याह-दुर्लभेत्यादि ।
लक्ष्मीके उपभोगका अवसर प्राप्त होनेपर भी उसे नहीं भोगा, किंतु जो बालब्रह्मचारीके समान उससे अलिप्त रहा है। यहां इस बातपर आश्चर्य भी प्रगट किया गया हैं कि लोकमें कोई भी उच्छिष्ट (उलटी या वांति) का उपभोग नहीं करता,परंतु ऐसे महापुरुषोंने अपने उच्छिष्टका-विना भोगे ही छोडी गई राज्यलक्ष्मी आदिका-भी दूसरोंको उपभोग कराया। तात्पर्य यह कि जो महापुरुष राज्यलक्ष्मी आदिका अनुभव न करके पहिले ही उसे छोड़ देते हैं वे अतिशय प्रशंसनीय हैं । तथा इसके विपरीत जो अविवेकी जन उनके द्वारा तृणवत् छोडी गई उक्त राज्यलक्ष्मीको भोगनेके लिये उत्सुक रहते हैं वे अतिशय निंदनीय हैं।।१०९।।हे भव्य! तू 'मेरा कुछ भी नहीं है' ऐसी भावनाके साथ स्थित हो । ऐसा होने.. पर तू तीन लोकका स्वामी (मुक्त) हो जायगा । यह तुझे परमात्माका रहस्य (स्वरूप) बतला दिया है जो केवल योगियोंके द्वारा प्राप्त करनेके योग्य या उनके ही अनुभवका विषय है। विशेषार्थ--अभिप्राय यह है कि पर पदार्थोंको अपना समझकर जबतक जीवका उनमें ममत्वभाव रहता है तबतक वह राग-द्वेषसे परिणत होकर कर्मोंको बांधता हुआ संसारमें परिभ्रमण करता है । और जैसे ही उसका पर पदार्थोसे वह ममत्वभाव हटता है वैसे ही वह निर्ममत्व होकर आत्मस्वरूपका चिंतन करता हुआ स्वयं भी परमात्मा बन जाता है ।।११०।यह मनुष्य पर्याय दुर्लभ, अशुद्ध और सुखसे रहित (दुखमय) है। मनुष्य अवस्थामें मरणका समय नहीं जाना जा सकता है। तया मनुष्यको पूर्वकोटि