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आत्मानुशासनम्
चन्द्रमा जिसे दीपकके समान प्रकाश देता है, तथा विरति (सर्वसंगपरि. त्याग ) रूप वनिताका संगम जिसे निरन्तर प्रमुदित किया करता है ; वह मुनि अपरिमित वैभवके धारक राजा के समान सुखी एवं शान्त होकर सोता है-इस प्रकार इस स्वाभाविक सामग्री का उपभोग करनवाला वह साधु अपरिमित विभूतिका उपभोग करनेवाले किसी भी राजा आदिकी अपेक्षा अतिशय सुखका अनुभव करता है। आगे (वै. श. ९९)वे कहते हैं-जिनके भोजनका पात्र अपना ही हाथ है,जो घूमते हुए भिक्षावृत्तिसे प्राप्त अविनश्वर अन्नका उपभोग करते हैं १,दस दिशायें जिनके वस्त्रका काम करती हैं-जो नग्न दिगम्बर रहते हैं, अपरिमित पृथिवी ही जिनकी स्थिर शय्या है, तथा जो सर्वसंगके परित्यागको स्वीकार करनेकी दढताको प्राप्त हए मनसे सदा संतुष्ट रहते है ; वे योगीश्वर धन्य हैं। ऐसे ही योगी दीनताको उत्पन्न करनेवाली-याचनावृत्तिसे प्राप्त होनेवालीसमस्त सामग्रीसे रहित होकर कर्मके नष्ट करने में समर्थ होते हैं ।
इस प्रकारके निःस्पृह साधुओंके पूर्वसंचित कर्मोंकी निर्जरा और नवीन कर्मोंका निरोध (संवर)होता है । उस समय उनके शरीरमेंसे वह निर्मल ज्योति (केवलज्ञान) प्रकट होती है जो समस्त पदार्थों के प्रकाशित करने में समर्थ होती है । फिर यह ज्योति उस शरीरके नष्ट हो जानेपर भी- सिद्धत्व अवस्थाको प्राप्त कर लेनेपर भी- इस प्रकारसे प्रदीप्त रहती है जिस प्रकार कि काष्ठमसे प्रगट हुई अग्न उस काष्ठको भस्म कर देनेके बाद भी अंगार अवस्थाम प्रदीप्त रहती है (२६४) ।
वैशेषिक इस मुक्तावस्थामें बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म,अधर्म और संस्कार इन नौ विशेष गुणोंका विनाश मानते हैं उनको लक्ष्य करके यहां (२६५) यह संकेत किया है कि जब गुणी (द्रव्य
१. इस विशेषणका ऐसा भाव प्रतीत होता है- जिनके द्वारा भोजन ग्रहण करनेपर दाताके ग्रहका अन्न अक्षय हो जाता है ।
२.नवानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तोच्छित्तिर्मोक्षः। प्रश.भा.(व्योमवती) पु.६३८.xxx नवानात्मात्मगुणानां बुद्धि-सुख-दुःखेच्छा-द्वेष-प्रयत्न-धर्माधर्म-संस्काराणां निर्मुलोच्छेदोऽपवर्ग इत्युक्तं भवति । यावदात्मगुणाः सर्वे नोच्छिन्ना वासनादयः, तावदात्यन्तिको दुःखव्यावृत्तिविकल्पते ॥
न्यायम. पृ. ५.०८.