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प्रस्तावना
तपके द्वारा अपकर्षण कर वर्तमानमें उदयमें लाना चाहता था वे निषेक यदि स्वयं ही उदय में आ रहे हैं तो इससे मुझे खेद क्यों होना चाहिये? जैसे कोई विजिगीषु जिस शत्रुके देशमें जाकर आक्रमण करना चाहता था वह शत्रु यदि स्वयं उसके ही देशमें आ जाता है तो फिर भला वह विजिगीषु उसके साथ युद्ध करनेमें क्यों भयभीत होगा ? नहीं होगावह तो इस अनुकूलताको पाकर अतिशय प्रसन्न ही होगा (२५७) ।
जिन तपस्वियोंने सब कुछ सह सकनेके योग्य आत्मबलको प्राप्त करके अकेले ही रहनेकी दृढ प्रतिज्ञा कर ली है तथा जो अपने कार्यमें संलग्न होकर पर्वतीय भयानक गुफाओंमें स्थित होते हुए ध्यानमें मग्न रहते हैं वे ही तपस्वी कर्म-मलको निर्मल करके अविनश्वर आत्मीक सुखको प्राप्त करते हैं (२५८)। ऐसे महातपस्वी सुख और दुखके समयमें यह विचार करते हैं कि यह सुख और दुख अपने पूर्वकृत कर्मके उदयसे प्राप्त होता है, उसको छोडकर अन्य कोई भी उस सुख और दुखके देने में समर्थ नहीं है। अतएव इसमें हर्ष-विषाद करना व्यर्थ है। ऐसा विचार करते हुए वे प्राप्त सुख-दुखमे उदासीन भावको धारण करते हैं।
इस प्रकार राग-द्वेषसे रहित हो जानेके कारण ही उन्हे अपने शरीरमें लगी हुई धूलि (मैल) भूषणके समान प्रतीत होती है । वे जहां कहीं भी शिला आदिके ऊपर आसन जमाकर ध्यानस्थ हो जाते हैं । उन्हें कठोर व कंकरीली पृथिवीपर निद्रा लेते हुए कोई कष्ट नहीं होता । तथा जहां सिंहादि हिंस्र जन्तुओंका सतत निवास होता है ऐसे भयानक पर्वतकी गुफाओंको वे महलसे बढकर मानते हैं और वहां सिंहके समान निर्भयतापूर्वक रहते हैं (२५९) ।
ऐसे ही राग-द्वेषविहीन मुनिको लक्ष्य करके कवि भर्तृहरि कहते हैं (वै. श. ९४)कि जिसकी शय्या (पलंग) पृथिवी है, जिसकी भुजा ही तकियाका काम करती है,आकाश जिसका चंदोबा (उढौना) है, अनुकूल वायु जिसे पंखेकी पवनसे भी बढकर प्रतीत होती है, शरद् ऋतुका
१. निजाजितं कर्म विहाय देहिनो न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन । विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददतीति विमुञ्च शेमुषीमाद्वात्रिंशतिका३१ आ. प्र. ५