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आत्मानुशासनम् कराया जायगा तो थोडे ही समयमे वह पूरा ही बांध काटकर नष्ट हो जावेगा और इस प्रकारसे संचित सब जल यों ही निकल जावेगा । ठीक इसी प्रकार गुणरूप जलसे परिपूर्ण इस तपरूप तालाबके प्रतिज्ञारूप बांधमें यदि कहीं थोडी-सी भी क्षति (दोष) होती है तो विवेकी साधु उसकी उपेक्षा नहीं करता है- वह योग्य प्रायश्चित्त आदिके द्वारा उसे शीघ्र ही ठीक कर लेता है । इसके विपरीत अविवेकी साधु दुर्धर तपके द्वारा जिन दोषोंको नष्ट करना चाहते हैं उन्हें ही वे परनिन्दा आदिक द्वारा और भी पुष्ट किया करते हैं। उस समय वे यह विचार नहीं करते कि अनेक उत्तमोत्तम गणोंसे विभूषित किसी महात्मामें यदि दैववश कोई एक आध क्षुद्र दोष दिखता है तो उसे तो उसकी गुणाधिकताके कारण कोई भी देख सकता है। पर इससे क्या उसकी निन्दा करके कोई उसके उस उच्च स्थानको पा सकता है ? कभी नहीं। उदाहरणस्वरूप चन्द्रमाके भीतर स्थित लांछन उसकी ही चांदनीके द्वारा देखा जाता है। परन्तु उसे देखकर यदि कोई कलंकी कहकर उस चन्द्रकी निन्दा करे तो इससे क्या वह उस चन्द्र के स्थानको पा लेगा? कभी नहीं। (२५०) ।
जिस प्रकार सज्जन पुरुषोंको गुणग्रहणके विना शान्ति नहीं प्राप्त होती उसी प्रकार दुर्जनोंको भी दोषनिरूपणके विना शान्ति नहीं प्राप्त होती । इसका कारण उनका उस जातिका चिरकालीन अभ्यास ही है१ । इसीलिये सच्चे साधु परके दोषोंको न देखकर सदा अपने ही दोषोंको देखा करते हैं । आत्माका उद्धार भी वस्तुतः इसीमें है । यही कारण है जो आत्मदोषद्रष्टाको शरीरसे संयुक्त होनेपर भी सिद्धसमान बतलाया गया है ।
__ कर्मोदयवश यदि कदाचित् किसी प्रकारका कष्ट भी प्राप्त होता है तो भी सच्चा साधु उससे खेदका अनुभव नहीं करता। बल्कि वह यह विचार करता है कि भविष्यमें उदय आनेके योग्य जिन कर्मनिषकोंकों में १. गुणानगृहन् सुजनो न निवृति प्रयाति दोषानवदन् न दुर्जनः ।
चिरन्तनाभ्यासनिबन्धनेरिता गुणेषु दोषेषु च जायते मतिः।। च.च.१-७ २. अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता।
कः समः खलु मुक्तोयं युक्तः कायेन चेदपि ।। क्ष. चू. १-८३.