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प्रस्तावना
सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद (दक्षता), अकषाय (कालुष्याभाव) और अयोग; ये उसकी मुक्ति के कारण हैं।
यह बन्ध और निर्जराकी प्रक्रिया भी अपने अपने परिणामोंके अनुसार हीनाधिक स्वरूपसे चला करता है । जैसे- मिथ्यात्वके रहनेपर चूंकि अविरति आदि शेष चार कारण भी अवश्य रहते हैं, अतएव मिथ्यादृष्टि जवके अधिक बन्ध होता है। उस मिथ्यात्वके अभावमें सम्यग्दृष्टि जीवके अविरति आदिके द्वारा उक्त मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा कुछ हीन कर्मबन्ध होता है। संयत जीवके मिथ्यात्व और अविरतिके अभाव में प्रमादादिनिमित्तक और भी कम बन्ध होता है । इसकी अपेक्षा अप्रमत्त अवस्थामें कषाय व योगनिमित्तक उससे भी कम बन्ध होता है। आगे अकषाय (उपशान्तमोह, क्षीणमोह व सयोगकेवली) अवस्थामें केवल एक योगनिमित्तक अतिशय अल्प मात्रामें प्रकृति और प्रदेशरूप ही बन्ध होता है। इसी प्रकार निर्जराके भी हीनाधिक क्रमको समझना चाहिये ( २४५) । इतना स्मरण रखना चाहिये कि वह निर्जरा सविपाक और अविपाकके भेदसे दो प्रकार होती है। उनमें सविपाक निर्जरा (फल देकर कर्मपुद्गलोंका पृथक् होना) तो सर्वसाधारणके हुआ करती है जो निरुपयोगी है। किन्तु जिसके पुण्य और पापरूष दोनों ही प्रकारके कर्मपुद्गल निष्फल होकर- अविपाक निर्जरा द्वारा- स्वयं निर्जीर्ण होते हैं उसे यहां योगी कहा गया है। वह सब प्रकारके आस्रवसे रहित होकर निर्वाण प्राप्त करता है (२४६) ।
यथार्थ तपस्वी ____उक्त आस्रवनिरोध (संवर) के कारण गुप्ति, समिति एवं धर्म आदि हैं। किन्तु इच्छानिरोधस्वरूप तप संवर और निर्जरा दोनोंकाही कारण है ११ जिस प्रकार जलसे परिपूर्ण तालाबका बांध यदि कहींपर थोडा-सा भी टूट जाता है तो बुद्धिमान् अधिकारी मनुष्य उसे उसी समय दुरुस्त करा देता है । कारण यह कि वह जानता है कि यदि उसे शीघ्र ही दुरुस्त नहीं १. स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परिषहजय-चारित्रः। तपसा निर्जरा च ।
त. सू. ९, २-३.