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तपः श्रुतनिबन्धनरागोऽप्यभ्युदयाय
विधूततमसो रागस्तपः श्रुतनिबन्धनः । संध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयाय सः ॥ १२३ ॥
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भवेत् । अस्यैवार्थस्य समर्थनार्थं दृष्टान्तमाह- रवेरित्यादि । अयमर्यो - यथा आदित्यस्य अप्राप्तसंध्यस्य न प्राप्ता संध्या प्रभातं येन तस्य । तमसो न सनुद्गमः न निर्गमः । तथा आत्मनोऽपि अप्राप्तशुभपरिणामस्य कर्मतमसो न निर्गम: इति ।। १२२ ।। ननु ज्ञानाराधनापरिणतस्य तपः श्रुतविषयरागेन रागित्वात्कथं मुक्तत्वं स्यात् इत्याशङ्क्याह -- विधूततमसोरित्यादि । तमोऽज्ञानम् अन्धकारश्च विधूतं स्फेटितं तमो येन तस्य । रागः रक्तिमा अनुरागश्च । तपःश्रुतनिबन्धनः तपश्रुतविषयः । संध्याराग इवार्कस्य प्रभातरागो यथादित्यस्य । अभ्युदाय उदयनिमित्तं स्वर्गापवर्ग निमित्तं च ।। १२३ ।। एतद्विपरीते रागे द्वेषं दर्शयन्नाह-निकलकर प्रभातके समान शुभ ( सरागसंयम ) को प्राप्त करता है और तब फिर कहीं कर्म कलंकरूप अन्धकार से रहित होता है। अभिप्राय यह है कि प्राणीका आचरण पूर्वमें प्रायः असंयमप्रधान रहता है, तत्पश्चात् वह यथाशक्ति असंयममय प्रवृत्तिको छोडकर संयमके मार्ग में प्रवृत्त होता है यह हुई उसकी अशुभसे शुभमें प्रवृत्ति । यद्यपि कर्मबन्ध ( पराधीनता ) की अपेक्षा इन दोनोंमें कोई विशेष भेद नहीं है, फिर भी जहां अशुभसे पाप कर्मका बन्ध होता है वहां शुभसे पुण्यकर्मका बन्ध होता है । इस प्रकारसे उसे शुद्ध होनेकी साधनसामग्री उपलब्ध होने लगती है, जो fa पापबन्ध के होनेपर असम्भव ही रहती है । उदाहरणके रूपमें जैसे प्रभात - काल में यद्यपि रात्रिगत अन्धकारकी सघनता नहीं होती है, फिर भी कुछ अंशमें तब भी अन्धकार रहता है, पूर्ण अन्धकारका विनाश तो दिन में ही हो पाता है । इस प्रकार वह शुभ में स्थित रहकर अन्तमें अपने शुद्ध स्वरूपको भी प्राप्त कर लेता है ॥ १२२ ॥ अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट कर देनेवाले प्राणीके जो तप और शास्त्रविषयक अनुराग होता है वह सूर्यकी प्रभातकालीन लालिमा के समान उसके अभ्युदय ( अभिवृद्धि ) के लिये होता है । विशेषार्थ --- जिस प्रकार प्रभातकाल में उदित होनेवाले सूर्यकी लालिमा उसकी अभिवृद्धिका कारण होती है उसी प्रकार अज्ञानसे रहित हुए विवेकी जीक्का भी तप एवं श्रुतसे सम्बद्ध 1 प स ' विधूततमसोरित्यादि ' नास्ति ।