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आत्मानुशासनम् .. [श्लो० १२१भूत्वा दीपोपमो धीमान् ज्ञानचारित्रभात्त्वरः । स्वमन्यं भासयत्येष प्रोद्वमत्कर्म (न् कर्म) कज्जलम् ॥ १२१॥ अशुभाच्छुभमायातः शुद्धः स्यादयमागमात् ।
रवेरप्राप्तसंध्यस्य तमसो न समुद्गमः ॥ १२२॥ सन्नेतत्करोतीत्याह- भूत्वेत्यादि । दीपोपमो दीपसदृशो भूत्वा। एष ज्ञानाराधनाराधको धीमान् । भासयति शोभयति वा प्रकाशयति वा । प्रोद्वमन् प्रोत्सृजन्, निर्जरां कुर्वन्नित्यर्थः ॥ १२१॥ तथा ज्ञानाराधनाराधक: प्रवचनजनितविवेकपूर्वकं क्रमेण अशुद्धपरिणामं परित्यज्य शुद्धपरिणामम् आश्रित्य मुक्तो भवतीति निदर्शयन्नाह-- अशुभादित्यादि । अयमाराधनाराधको भव्यः । आगमात् आगमज्ञानात् । अशुभात् अतपश्चारित्रपरिणामात् । शुभं ताश्चारित्रपरिणामम् । मायातः आश्रितः । शुद्धः स्यात् सकलकर्ममलकलङ्कविकलो समय उसकी प्रधानता नहीं होती जिस प्रकार कि तापकी दीपकमें। परन्तु आगेकी अवस्थामें उसका वह प्रकाश (ज्ञान) सूर्यके प्रकाशके समान समस्त पदार्थोंका प्रकाशक हो जाता है। इस अवस्था में उसके जैसे प्रकाशकी प्रधानता होती है वैसे ही तेज (तपश्चरण) की. भी प्रधानता हो जाती है ॥ १२० ॥ वह बुद्धिमान् साधु दीपक के समान होकर ज्ञान और चारित्रसे प्रकाशमान होता है। तब वह कर्मरूप काजलको उगलता हुआ स्वके साथ परको प्रकाशित करता है। विशेषार्थ--जिस प्रकार दीपक प्रकाश और तेजसे युक्त होकर काजलको छोडता है और घट-पटादि पदार्थों को प्रगट करता है उसी प्रकार साधु भी ज्ञान और चारित्रसे दीप्त होकर कर्मको निर्जरा करता है तथा आत्म-परस्वरूपको जानता भी है ॥ १२१ ॥ यह आराधक भव्यजीव आगमज्ञानके प्रभावसे अशुभस्वरूप असंयम अवस्थासे शुभरूप संयम अवस्थाको प्राप्त हुआ समस्त कर्ममलसे रहित होकर शुद्ध हो जाता है । ठीक है- सूर्य जबतक सन्ध्या (प्रभातकाल) को नहीं प्राप्त होता है तबतक वह अन्धकारको नष्ट नहीं करता है ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार सूर्य प्रथमतः रात्रि अन्धकारसे निकलकर प्रभातकालको प्राप्त करता है और तब फिर कहीं वह अन्धकारसे रहित होता है, उसी प्रकार आराधक भी पहिले रात्रिगत अन्धकारके समान अशुभसे
1 प शोभयति प्रकाशयति ।