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दैवदुर्लङ्घत्वे दृष्टान्तः पुरा गर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः किंकर इव स्वयं स्रष्टा सृष्टः पतिरथ निधीनां निजसुतः । क्षधित्वा षण्मासान् स किल पुरुरप्याट जगतीमहो केनाप्यस्मिन् विलसितमलद्ध्यं हतविधेः ॥ ११९ ॥ प्राक प्रकाशप्रधानः स्यात प्रदीप इव संयमी।
पश्चात्तापप्रकाशाभ्यां भास्वानिव हि भासताम् ॥ १२० ॥ कस्याः । सृष्टेः असिमषिकृष्यादेः। अथ शब्दः पुनरर्थे निजसुत इत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः । निजसुतः पुन: पतिनिधोनाम् । पुरुरपि इन्द्रादीनामाराध्योऽपि । आट पर्यटितोऽभवत् ॥ ११९ ।। एवंविधसम्यग्दर्शनाद्याराधनात्रयं श्रुतज्ञानादिप्रधानतया प्रवृत्तं विशिष्टप्रयोजनप्रसाधकं भवति, नान्यथा । अतस्तदनन्तरं ज्ञानाराधनाप्रदर्शनोपक्रम कुर्वाण: प्रागित्याद्याह-- प्रागित्यादि । प्राक् प्रथमम् । प्रकाशप्रधानः यथावत्स्वपरस्वरूपप्रकाशनप्रधान: ज्ञानप्रधान इत्यर्थः। संयमी मुनिः । तपः तपनं ताप: संतापः, तपश्चारित्रयोरनुष्ठानमित्यर्थः । भासतां शोभताम् प्रकाशतां वा ॥ १२० ॥ ज्ञानाराधनाराधकः इत्थंभूतः जिनेन्द्रके गर्भ में आनेके पूर्व छह महिनेसे ही इन्द्र दासके समान हाथ जोडे हुए सेवामें तत्पर रहा, जो स्वयं ही सृष्टिको रचना करनेवाला था, अर्थात् जिसने कर्मभूमिके प्रारम्भमें आजीविकाके साधनोंसे अपरिचित प्रजाके लिये आजीविकाविषयक शिक्षा दी थी, तथा जिसका पुत्र भरत निधियोंका स्वामी (चक्रवर्ती) था; वह इन्द्रादिकोंसे सेवित आदिनाथ तीर्थंकर जैसा महापुरुष भी बुभुक्षित होकर छह महिनेतक पृथ्वीपर घूमा; यह आश्चर्यकी बात है । ठीक है- इस संसारमें कोई भी प्राणी दुष्ट दैवके विधानको लांघनेमें समर्थ नहीं है ।। ११९॥ साधु पहिले दीपकके समान प्रकाशप्रधान होता है । तत्पश्चात वह सूर्यके समान ताप और प्रकाश दोनोंसे शोभायमान होता है । विशेषार्थ-- जिस प्रकार दीपक केवल प्रकाशसे संयुक्त होकर घट-पटादि पदार्थोंको प्रकाशित करता है उसी प्रकार साधु भी प्रारम्भमें ज्ञानरूप प्रकाशसे संयुक्त होकर स्व और परके स्वरूपको प्रकाशित करता है। यद्यपि इस समय उसके प्रकाश (ज्ञान) के साथ ही कुछ तपका तेज भी अवश्य रहता है, फिर भी उस
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