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[ श्लो० ११८
आत्मानुशासनम्
समस्तं साम्राज्यं तृणमिव परित्यज्य भगवान् लपस्यन् निर्माणः क्षुधित इव दीनः परगृहान् । किलाक्षार्थी स्वयमलभमानोऽपि सुचिरं न सोढव्यं किं वा परमिह परैः कार्यवशतः ॥ ११८ ॥
द्वयमाह - समस्तं त्रिभुवनविषयम् । साम्राज्यं परमैश्वर्यम् । निर्माण: मानरहितः । दीना इव । किले. त्यागमोक्तौ । न सोढव्यं किं वा । अपि तु सर्वमपि सोढव्यम् । परम् अन्यत् ॥ इह लोके । परैः उत्कृष्टैः, भगवतोऽन्यैर्वा । कार्यवशतः संवर- निर्जरालक्षणं कार्यम् उररी कृत्य । । ११८ || पुरेत्यादि । पुरा गर्भान् पूर्वं गर्भात् । स्वयं स्रष्टा परोपदेशमन्तरेण विधाता ।
दिया था और तपश्चरणको स्वीकार किया था वे भी निरभिमान होकर भूखे दरिद्र के समान भिक्षा के निमित्त स्वयं दूसरोंके घरोंपर घूमे । फिर भी उन्हें निरन्तराय आहार नहीं प्राप्त हुआ । इस प्रकार उन्हें छह मास घूमना पडा । फिर भला अन्य साधारण जनों या महापुरुषों को अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिये यहां क्या ( परीषह आदि) नहीं सहन करना चाहिये ? अर्थात् उसकी सिद्धिके लिये उन्हें सब कुछ सहन करना ही चाहिये || विशेषार्थ - यह पुराणप्रसिद्ध बात है कि भगवान् ऋषभ देव दीक्षा लेने के बाद छह मास के उपवासको पूर्ण करके आहारके लिये छह माह घूमे थे, परंतु भोगभूमिके बाद उस समय कर्म भूमिका पादु-होनेसे कोई भी आहार दानकी विधिको नहीं जानता था । इसीलिये उन्हें छह माह तक विधिपूर्वक निरन्तराय आहार नहीं प्राप्त हो सका था । अन्त में जब राजा श्रेयांसको जातिस्मरण हुआ तब जिस विधि श्रीमतीके भवमें आहारदान दिया था उसी विधि से भगवान् आदि जिनेन्द्रको आहार दिया इस प्रकार दैववशात् जब भगवान् ऋषभनाथ जैसे महापुरुषको भी निरभिमान होकर शिक्षा के लिये छह माह तक घर-घर घूमना पडा और वह नहीं प्राप्त हुई तो फिर यदि साधारण जनोंको अपने अभीष्ट प्रयोजनकी सिद्धिमें कष्ट उपस्थित होता है तो उन्हें वह सहन करना ही चाहिये ॥ ११८ ॥ जिस आदिनाथ