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आत्मानुशासनम् [श्लो० १२४विहाय व्याप्तमालोकं पुरस्कृस्य पुनस्तमः ।
रविवद्रागमागच्छन् पातालतलमृच्छति ॥ १२४॥ विहायेत्यादि । विहाय परित्यज्य । व्याप्नं वस्तुप्रकाशने प्रसृतम् । आलोकं ज्ञानम् उद्योतं च । पुरस्कृत्य अग्रे कृत्वा स्वीकृत्य च । पातालतलम् अस्तं नरकं च । ऋच्छति गच्छति ॥१२४ ॥ एवं चतुर्विधाराधनायां प्रगुणमनसा प्रवर्तमानस्य मुमुक्षोर्मोक्षपदप्राप्तिअनुराग उसकी अभिवृद्धिका- स्वर्ग-मोक्षकी प्राप्तिका-- कारण होता है। जो अनुराग हानि (दुर्गति) का कारण होता है वह अज्ञानीका ही होता है
और वह भी विषयभोगविषयक अनुराग विवेकी (सम्यग्दृष्टि) जीवका वह तप आदिविषयक अनुराग कभी हानिका कारण नहीं हो सकता है ॥१२३॥ जिस प्रकार सूर्य फैले हुए प्रकाशको छोडकर और अन्धकारको आगे करके जब राग (लालिमा) को प्राप्त होता है तव वह पातालको जाता है-- अस्त हो जाता है, उसी प्रकार जो प्राणी वस्तुस्वरूपको प्रकाशित करनेवाले ज्ञानरूप प्रकाशको छोडकर अज्ञानको स्वीकार करता हुआ राग (विषयवांछा) को प्राप्त होता है वह पातालतलको- नरकादि दुर्गतिको-- प्राप्त होता है ॥ विशेषार्थ---- सूर्य जिस प्रकार प्रभात समयमें लालिमाको धारण करता है उसी प्रकार वह सन्ध्या समयमें भी उक्त लालिमाको धारण करता है । परन्तु जहां प्रभातकालीन लालिमा उसके अभ्युदय (उदय या वृद्धि ) का कारण होती है वहां वह सन्ध्या समयकी लालिमा उसके अधःपतन (अस्तगमन) का कारण होती है । ठीक इसी प्रकारसे जो प्राणी अज्ञानको छोडकर तप एवं श्रुत आदिके विषयमें रागको प्राप्त होता है वह राग उसके अभ्युदय-स्वर्ग-मोक्षकी प्राप्ति-- का कारण होता है, किन्तु जो प्राणी विवेकको नष्ट करके अज्ञानभावको प्राप्त होता हुआ विषयानुरागको धारण करता है वह अनुराग उसके अधःपतनका-- नरक-निगोदादिकी प्राप्तिका-- कारण होता है। इस प्रकार तपश्रुतानुराग और विषयानुराग इन दोनोंमें अनुरागरूपसे समानताके होनेपर भी महान् अन्तर है-- एक ऊर्ध्वगमनका कारण है और दूसरा अधोगमनका कारण है ॥ १२४ ॥ जिस यात्रा (गमन) में ज्ञान