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आत्मानुशासनम्
कुशलविलयन्वालाजाले कलत्रकलेवरे कथमिव भवानत्र प्रीतः पृथग्जनदुर्लभे ॥८०॥ व्यापत्पर्वमयं विरामविरसं मूलेऽप्यभोग्योचितं विष्वक्क्षुरक्षत पातकुष्ठ कुथिताद्युग्रामछिद्रितम् ।
[. इल्लो० ८०
उपकृतक्तः वस्त्राभरणादिभिः उपचारं कृतवतः । न च नैक । इदं कलत्रकलेवरम् । अपाकरोत् प्रतिकूला चरण प्राणविपत्त्याद्यपकारकं कृतवत् । कुशलेत्यादि । कुशलस्य पुण्यस्य विलयाय ज्वालाजाले ज्वालासंघाते । प्रीतः प्रीति मतः ।। ८० ।। तत्र च प्रीति परित्यज्य सर्वथा निःसारं मानुष्यं विशिष्टधर्मोपार्जनेन सफलं कुविति शिक्षां प्रयच्छताह-- व्यापदित्यादि । विविधा आपदो व्यापदः ता एक पर्वाणि प्रन्ययः तैनिर्वृत्तं व्यात्पर्वमयम् । विराम विरसं विरामे वृद्धत्वे अग्रभागे च विगतरसम् । मूले मूर्ध्नि बालत्वे च अभोग्योचितम्
लिये खुले हुए महा भयानक द्वारके समान है । तथा जिस स्त्रीशरीरको तूने वस्त्राभरणादिसे अलंकृत कर बार बार उपकृत किया है उसने क्या तेरा प्रतिकूल आचरण करके अपकार नहीं किया है ? अर्थात् अवश्य किया है । अतएव ऐसे कृतघ्न स्त्री के शरीर में अनुराग करना उचित नहीं है ||८०|| आपत्तियोंरूप पोरोंसे निर्मित, अन्तमें नीरस, मूलमें भी उपभोगके अयोग्य तथा सब ओरसे भूख, क्षतपात ( घाव ), कोढ और दुर्गन्ध आदि तीव्र रोगों से छेद युक्त की गई ऐसी यह मनुष्य पर्याय घुनों ( लव. डीके कीडों) से खाये हुए गन्ने के समान केवल नामसे ही रमणीय है । हे भव्य ! तू इस निःसार मनुष्य पर्यायको शीघ्र यहां परभवका बीज ( साधन) करके सारयुक्त कर ले ॥ विशेषार्थं - यहां मनुष्य पर्यायको ara ras समान निःस्सार बतलाकर उसके द्वारा योग्य संयम एवं तप आदिका आचरण करके परभवको सुधारनेकी प्रेरणा की गई है। उन दोनों में समानता इस प्रकारसे है - जैसे गन्ना पोरोंसे संयुक्त होता है वैसे वह मनुष्य पर्याय अनेक प्रकारके दुःखोंरूप पोरोंसे संयुक्त है, जिस प्रकार गन्ना अन्त (अन्तिम भाग) में नीरस या फीका होता है उसी प्रकार मनुष्य शरीर भी अन्तमें ( वृद्धावस्थामें ) नीग्स ( आनन्दसे रहित )