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मानुष्यस्य स्वरूपम्
मानुष्यं घुणभक्षितेक्षुसदृशं नामैकरम्थं पुनः निःसारं परलोकबीजमचिरात्कृत्वेह सारी कुरु ॥८१॥ प्रसुप्तो मरणाशङ्कां प्रबुद्धो जीवितोत्सवम् । प्रत्यहं जनयन्नेव तिष्ठे कार्य कियच्चिरम् ॥८२॥
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अनुभवनायोग्यम्। विश्वगित्यादि । विष्वक् समन्तात् क्षुच्च बुभुक्षा च, क्षतपातश्च 1, कुष्ठं च कुत्सितं च तानि आदिर्येषां जलोदरभगन्दराद्युग्रामयाः तैः छिद्रितं जर्जरीकृतम् इक्षुदण्डकम् । नामैकरम्यं नाम्ना मानुष्यमिति शब्देनैकेन केवलेन रम्यम्, न परैर्धर्मैः । निःसारं अन्तस्तुच्छम् । परलोकबीजं धर्मसाधनत्वेन परलीकोपायम् । इह लोके सारीकुरु सफलं कुरु ॥८१॥ प्रसुप्तेत्यादि । प्रसुप्तो गाढनिद्रा क्रान्तः । मरणाशङ्काम् । प्रबुद्धो जागरित: जीवितोत्सवं जीविते सति उत्सव: परिजन परितोषादि । प्रत्यहं प्रतिदिनम् । एषः आत्मा । कियच्चिरं कियद्बहुकालम् ।। ८२।। एवं कायस्यात्मोपकारकत्वाभावं प्रतिपाद्य बन्धूनां प्रतिपादहोता है, गन्ना यदि मूल (जड ) में उपभोग्यके (चूसने के ) योग्य नहीं होता है तो वह मनुष्यशरीर भी मूल (बाल्यावस्था) में उपभोग के अयोग्य होता है, गन्ना जहां वनस्पतिमें होनेवाले रोगोंसे ग्रसित होकर यत्र तत्र छेदयुक्त हो जाता है वहां मनुष्य शरीर भी क्षुधा एवं घाव आदि रोगों से छेदयुक्त (दुर्बल) हो जाता है, तथा जिस प्रकार गन्ना भीतर सारभागसे रहित होता है उसी प्रकार मनुष्य शरीर भी सार ( श्रेष्ठवस्तु) से रहित होता है इस प्रकार दोनोंमें समानता होनेपर जिस प्रकार किसान उस गन्नेकी गांोंको बीजके रूपमें सुरक्षित रखकर उनसे पुनः उसकी सुन्दर फसलको उत्पन्न करता है उसी प्रकार विवेकी जनका भी कर्तव्य है कि वे उस निःसार मनुष्यशरीरको आगामी भवका देवादि पर्याय अथवा सिद्ध पर्याय) का बीज ( साधन) बनाकर उसे सफलीभूत करें ॥८१॥ जब प्राणी सोता तब वह मृतवत् होकर मरने की आशंका उत्पन्न करता है और जब जागृत रहता है तब जीने के उत्सवको करता है । इस प्रकार प्रतिदिन आचरण करनेवाला यह प्राणी कितने काल तक उस शरीरमें रह सकेगा ? अर्थात् बहुत ही थोडे समय तक रह सकता है, पश्चात् उस शरीरको छोडना ही पडेगा ॥ ८२ ॥ हे प्राणी ! यदि तूने 1 ज क्षसपातश्च ।