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आत्मानुशासनम्
[श्ला० ८३०
सत्यं वदात्र यदि जन्मनि बन्धुकृत्यमाप्तं त्वया किमपि बन्धुजनाद्धितार्थम् । एतावदेव परमस्ति मृतस्य पश्चात् संभूय कायमहितं तव भत्मयन्ति ॥८३॥ जन्मसंतानसंपादिविवाहादिविधायिनः । स्वाः परेऽस्य सकृत्प्राणहारिणो न परे परे ॥८४॥
यन्नाह-सत्यमित्यादि । अत्र संसारे बन्धुकृत्यं बन्धुकार्यम् । हितार्थन् उपकारकम् । आप्तं प्राप्तम । संभूय मिलित्वा ।।८३।। ननु विवाहादिकार्यस्य बन्धुजनान् (त्) प्रतीते: कथं न तत: तत्कार्यमित्याशझ्याह-- जन्मेत्यादि । जन्ननः संसारे प्रादुर्भावस्य संतान: प्रवाहः तस्य संपादि संप्रापकं तच तद्विवाहादि तस्य विधायिनः कारका: स्वजनाः । तस्य आत्मन: परे शत्रवः । अपरे स्वजनेभ्योऽन्ये ये ते सकृत्यागहारिणः एकदा प्राणविपत्तिकारिणः न ते परे शत्रवः ॥ ८४ ॥ अथोच्यते विवाहादिविधानेन धनधान्यकलत्रादि--
संसारमें भाई-बन्धु आदि कुटुम्बी जनोंसे कुछ भी हितकर बंधुत्वका कार्य प्राप्त किया है तो उसे सत्य बतला । उनका केवल इतना ही कार्य है कि मर जानेके पश्चात् वे एकत्रित होकर तेरे अहितकारक शरीरको जला देते हैं । विशेषार्थ-बंधुका अर्थ हितैषी होता है । परंतु जिन कुटुम्बी जनोंको बन्धु समझा जाता है वे वास्तवमें प्राणीका कुछ भी हित नहीं करते हैं बल्कि,इसके विपरीत वे राग-द्वेषके कारण बनकर उसका अहित ही करते हैं । इसीलिये विवेकी जनको बन्धुजनमें अनुरक्त न होकर अपने आत्महितमें ही लगना चाहिये ॥८३।। जो कुटुम्बी जन जन्मपरंपरा (संसार) को बढाने वाले विवाहादि कार्यको करते हैं वे इस जीवके शत्रु हैं, दूसरे जो एक ही बार प्राणोंका अपहरण करनेवाले हैं वे यथार्थमें अत्रु नहीं हैं। विशेषार्थ-जो अपना अहित करे वही वास्तवमें शत्रु है-किन्तु जिसे प्राणी शत्रु मानता है वह सचमुचमें शत्रु नहीं है । कारण यह कि यदि वह अधिकसे अधिक अहित करेगा तो केवल एक वार प्राणोंका वियोग कर सकता है, इससे अधिक वह और कुछ भी