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धनिनोऽपि दुःखिन एव
८१ धनरन्धनसंभारं। प्रक्षिप्याशाहुताशने । ज्वलन्तं मन्यते भ्रान्तः शान्तं संघक्षगक्षये ॥ ८५॥ पलितच्छलेन देहानिर्गच्छति शद्धिरेव तव बद्धः।
कथमिव परलोकार्थ जरी वराकस्तदा स्मरति ॥८६॥ संगदकत्वेन वाञ्छितार्थप्रापकत्वात कथं तेषां शत्रुत्वमिति तदयुक्तमित्याह-- धनेत्यादि । रन्ध्यते अनेनेति रन्धनम् • इन्धनम, धनमेव रन्धनं तस्य संभारं संबातम । प्रक्षिप्य । क्व । आशाहुताशने आशैव हुताशनोऽग्निः तस्मिन् । ज्वलन्तम आशाहताशनम् । शान्तम् उपशानं मन्यते । भ्रान्तः सन् अविवेकी । संधुक्षणक्षणे आशाग्नेः धनेन्धनैः प्रज्वालनसमये ॥ ८५ ॥ एवं मन्यमानस्य भवतः कि किं भवतीत्यह- पलितेत्यादि । पलितच्छलेन पलितव्याजेन । द्धिः निर्मलता। परलोकार्थ परत्रार्थम् । अथवा पर उत्कृष्टो लोको मोक्ष: परलोक: तस्य अर्थः नहीं कर सकता है । किन्तु जो कुटुम्बीजन विवाहादिको करके प्राणीको संसारवद्धिके कारणोंमें प्रवृत्त करते हैं वास्तविक शत्रु तो वे ही हैं, क्योंकि उनके द्वारा अनेक भवोंका घात होनेवाला है- राग-द्वेषादिकी वृद्धिके कारण होनेसे वे अनेक भवोंको दुखमय बनानेवाले हैं ।। ८४ ॥ आशा (विषयतृष्णा) रूप अग्निमें धनरूप इन्धनके समूहको डालकर भ्रान्तिको प्राप्त हुआ प्राणी उस जलती हुई आशारूप अग्निको जलनेके समयमें शान्त मानता है। विशेषार्थ---- जिस प्रकार अग्निमें इन्धनके डालनेसे वह उत्तरोत्तर बढती ही है- कम नहीं होती- उसी प्रकार अधिक अधिक धनके संचयसे यह विषयतृष्णा भी उत्तरोत्तर बढती ही है- कम नहीं होती । अग्नि जब इन्धनको पाकर अधिक भडक उठती हैं तब मूर्खसे मूर्ख प्राणी भी उसै शान्त नहीं मानता। परन्तु आश्चर्य है कि विषयसामग्रीरूप इन्धनको पाकर उस तृष्णारूप अग्निके भडक उठनेपर भी यह प्राणी उसे (विषयतृष्णाग्निको) और उसमें जलते हुए अपनेको भी शान्त मानता है । यह उसकी बडी अज्ञानता है ।। ८५ ।। हे भव्य ! बालोंको धवलताके मिषसे तेरी बुद्धिकी निर्मलता ही शरीरसे
1 मु (जै. नि.) रे थनेन्धनसंभारं । आ.६