________________
८२
आत्मानुशासनम् . [ श्लो० ८७इष्टार्थोद्यदनाशितं भवसुखक्षाराम्भसि प्रस्फुरन्
नानामानसदुःखवाडवशिखासंदीपिताभ्यन्तरे । प्रयोजनम् अनन्तज्ञानादि सम्यग्दर्शनज्ञानादिकारणकलापो वा, अर्थ्यते याच्यते मोक्षो येनासावर्थ इति व्युत्पत्तेः । जरी जरा अस्यास्तीति जरी ब्रीह्यादेरिन (जै. म. ४।१।४२) तदा शुद्धिनिर्गमकाले ।। ८६ ।। ये तु बुद्धिशुद्धियुक्ता मोहानभिभूतचेतसः परलोकार्थं स्मरन्ति ते विरला इत्याह-- इष्टार्थेत्यादि । इष्टार्थः स्रग्वनिताचन्दनादिः
निकलती जा रही है। ऐसी अवस्थामें बिचारा वृद्ध उस समय परभवमें हित करनेवाले कार्योंका कैसे स्मरण कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता है ॥ विशेषार्थ- वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर बाल सफेद होने लगते हैं। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि वह बालोंकी सफेदी क्या है मानों निर्मल बुद्धि ही शरीरसे निकलकर बाहिर आ रही है । अभिप्राय उसका यह है कि वृद्धावस्थामें जैसे जैसे शरीर शिथिल होता जाता है वैसे ही वैसे प्राणीकी बुद्धी भी भ्रष्ट होती जाती है । उस समय उसकी विचारशक्ति नष्ट हो जाती है तथा करने योग्य कार्यका स्मरण भी नहीं रहता है। ऐसी दशामें यदि कोई मनुष्य यह विचार करे कि अभी मैं युवा हूं, इसलिये इस समय इच्छानुसार धन कमाकर विषयसुखका अनुभव करूंगा और तत्पश्चात् वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर आत्मकल्याणके मार्गमें लगूंगा । ऐसा विचार करनेवाले प्राणियोंको ध्यानमें रखकर यहां यह बतलाया है कि वृद्धावस्थामें इन्द्रियां शिथिल और बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है तथा व्रत एवं जप-तप आदि करनेका शरीरमें सामर्थ्य भी नहीं रहता है । इसके अतिरिक्त मृत्युका भी कोई नियम नहीं हैवह वृद्धावस्थाके पूर्वमें भी आ सकती है । अतएव वृद्धावस्थाके ऊपर निर्भर न रहकर उसके पहिले ही, जब कि शरीर स्वस्थ रहता है, आत्मकल्याणके मार्गमें- व्रतादिके आचरणमें- प्रवृत्त हो जाना अच्छा है ॥८६।। जो संसाररूप भयानक समुद्र मनोहर पदार्थों के निमितसे उत्पन्न होनेवाले असन्तोषजनक सुखरूप खारे जलसे परिपूर्ण है, जिसका भीतरी भाग
मु (जैः नि.) इष्टार्थाद्यदवाप्ततद्भवसुखेक्षा ।