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स्त्रीकलेवरस्वरूपम् असामवायिक मृत्योरेकमालोक्य कंचन । देशं कालं विधि हेतुं निश्चिन्ताः सन्तु जन्तवः ॥७९॥ अपिहितमहाघोरद्वारं न कि नरकापदामुपकृतवतो भूयः किं तेन चेदमपाकरोत् ।
निश्चिन्त: स्थातव्यमित्याह-असामवायिकमित्यादि। असानवायिक प्रतिकूलं अगोचर पा । विधि प्रकारम् ॥७९।। एवम् आयुधो नश्वरत्वं प्रतिपाद्य इदानीं स्त्रीनिन्दा कुर्वाणस्तस्कायस्य अपकारहेतुत्वं प्रदर्शयन् 'अपिहितं' इत्याद्याह-अपिहितम् अझम्पितम्।
सम्बन्ध न रखनेवाले किसी एक देशको, कालको, विधानको और कारणको देखकर प्राणी निश्चिन्त हो जावें ॥ विशेषार्थ-पूर्व श्लोकमें यह बतलाया गया है कि प्राणीका मरण कब, कहां और किस प्रकारसे होगा; इस प्रकार जब कोई नहीं जान सकता है तब विवेको जीवोंको यों ही निश्चिन्त होकर नहीं बैठना चाहिये,किन्तु उससे आत्मरक्षाका कुछ प्रयत्न करना चाहिये । इसपर शंका हो सकती थी कि जब उसके काल और स्थान आदिका पता ही नहीं है, तब भला उसका प्रतीकार करके आत्मरक्षा की ही कैसे जा सकती है ? इसके उत्तरस्वरूप यहां यह बतलाया है कि यदि उस काल (मरण) के स्थान आदिका पता नहीं है तो न रहे, किन्तु हे प्राणी ! ऐसे किसी सुरक्षित स्थानको प्राप्त कर ले जहां कि वह पहुंच ही नहीं सकता हो । ऐसा करनेसे उसका प्रतीकार करनेके विना ही तेरी रक्षा अपने आप हो जावेगी। ऐसे सुरक्षित स्थानका विचार करनेपर वह केवल मोक्षपद ही ऐसा दिखता है जहां कि मृत्युका वश नहीं चलता । अतएव बाह्य वस्तुओंमें इष्टानिष्टकी कल्पनाको छोडकर मोक्षमार्गमें ही प्रवृत्त होना चाहिये, इसीमें जीवका आत्मकल्याण है ॥७९॥ जिस स्त्रीके शरीरको अज्ञानी जन दुर्लभ मानते हैं उस स्त्रीके शरीरमें हे भव्य ! तू किसलिये अनुरक्त हो रहा है ? वह स्त्रीका शरीर पुण्य (सुख) को भस्मीभूत करनेके लिये अग्निकी ज्वालायोंके समूहके समान होकर नरकके दुःखोंको प्राप्त करनेके