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आत्मानुशासनम् [श्लो० ७७संसारभीकरमहागहनान्तराले .. हन्ता निवारयितुमत्र हि कः समर्थः ॥ ७७ ।। कदा कथं कुतः कस्मिन्नित्यतयः खलोऽन्तकः । प्राप्नोत्येव किमित्याध्वं यतध्वं श्रेयसे बुधाः ॥ ७८॥
पुनः क्व । संसार एव भीकर महागहनान्तरालं तत्र । अत्र वेधसि ॥ ७७ ।। म च अन्तकस्य देशकालाकारनैयत्यमस्ति यत्परिहारेणासौ परिहियते इत्याह--- कदेत्यादि । कदा कस्मिन् काले । कथं केन प्रकारेग । कुतः कस्मात् स्थानात् । कस्मिन् क्षेत्रे आगच्छति इत्येवम् अतय: अपर्यालोच्य: । किमिति आध्वं किमिति निश्चिन्तास्तिष्ठत । यतध्वं श्रेयसे प्रयत्नं कुरुत चारित्रानुष्ठानाय हे बुधाः ॥ ७८॥ देशादीनां च मध्ये मृत्योरमोचरं किंचिदवलोक्य
पहिले तो मोहरूप शराब पिलाकर मूछित करता है-- हेयोपादेयके ज्ञानसे रहित करता है, और तत्पश्चात् उसके रत्नत्रय स्वरूप धनको लूटकर मार डालता है- दुर्गतिमें प्राप्त कराकर दुखी करता है । इस प्रकार जैसे उस बीहड जंगलमें चोरके हाथोंमें पडे हुए, उस मनुष्यकी कोई रक्षा करनेवाला नहीं है उसी प्रकार इस भयानक संसारमें कर्मोदयसे मोहको प्राप्त हुए प्राणीकी भी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। हां, यदि वह स्वयं ही मोहसे रहित होकर हिताहितके विवेकको प्राप्त कर लेता है तो अवश्य ही वह संसारके सन्तापसे बच सकता है। प्रकारान्तरसे यहां यह भी सूचित किया गया है कि जो ब्रह्मा स्वयं ही विश्वको उत्पन्न करता है वही यदि उसका संझरक हो जाय तो फिर दूसरा कौन उसकी रक्षा कर सकता है ? कोई नहीं ॥ ७७ ।। जिस कालके विषयमें कब वह आता है, कैसे आता है, कहांसे आता है, और कहांपर आता है; इस प्रकारका विचार नहीं किया जा सकता है वह दुष्ट काल प्राप्त तो होता ही है । फिर हे विद्वानो! आप निश्चिन्त' क्यों बैठे हैं ? अपने कल्याणके लिये प्रयत्न कीजिये । अभिप्राय यह है कि प्राणीके मरणका म तो कोई समय ही नियत है और न स्थान भी। अतएव विवेकी जनको सदा सावधान रहकर आत्महितमें प्रवृत्त रहना चाहिये ॥ ७८ ॥ मृत्युसे