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अलध्यतमोऽन्तकः
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उत्पाद्य मोहमदविव्हलमेव। विश्वं वेधाः स्वयं गतघृणष्ठकवधयेष्टम् ।
वेधाः विधिः कर्ता । विश्वं जगत् । मोहजनितमदेन विव्हलं कृत्वा । कृत्याकृत्यविवेकशून्यमेव उत्पाद्य पूर्वम्, पश्चात् स्वयमेव गतघृणो निदयः सन् हन्ता यथेष्टं ठकवत् । क्वेत्याह संसारे इत्यादि । ठगो हि गहनान्तराले हन्ता भवति । वेधाः
नहीं है जो मृत्युसे बच सके ॥ विशेषार्थ-- लोकमें सूर्य अतिशय प्रतापी माना जाता है । उसके एक हजार किरण (कर) क्या हैं मानो आक्रामक हाथ ही हैं । ऐसे अपूर्व बलशाली तेजस्वी सूर्यको भी ग्रहणके समय वह काला राह ग्रसित करता है जिसके न तो स्थानका पता है और न जिसके शरीर भी है । जिस प्रकार वह प्रतापशाली भी सूर्य राहके आक्रमणसे आत्मरक्षा नहीं कर सकता है उसी प्रकार कितना भी बलवान् प्राणी क्यों न हो, किन्तु वह भी कालसे (मृत्युसे) अपनी रक्षा नहीं कर सकता है-- समयानुसार मरणको प्राप्त होता ही है । कारण यह कि राहुके समान वह काल भी ऐसा है कि न तो उसके स्थानका ही पता है और न उसके शरीर भी है जिससे कि उसका कुछ प्रतिकार किया जा सके । ७६ ॥ कर्मरूप ब्रह्मा समस्त विश्वको ही मोहरूप शराबसे मूर्छित करके तत्पश्चात् स्वयं ही ठग (चोर-डाक) के समान निर्दय बनकर इच्छानुसार संसाररूप भयानक महावनके मध्यमें उसका घात करता है। उससे रक्षा करने के लिये भला यहां दूसरा कौन समर्थ है ? अर्थात् कोई नहीं है । विशेषार्थ-- जिस प्रकार कोई चोर या डाकू बीहड जंगलमें किसी मनुष्यको पाकर प्रथमतः उसे शराब आदि मादक वस्तु पिलाकर मूछित करता है और तत्पश्चात् उसके पास जो कुछ भी रुपया-पसा आदि होता ह उसे लूट कर मार डालता है। उसी प्रकार यह कर्म भी प्राणीको
म (ज. नि.) मविभ्रममेव । - ......