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[ श्लो० ७६
आत्मानुशासनम्
अविज्ञातस्थानो व्यपगततनुः पापमलिनः खलो राहुर्भास्वद्दशशतकराक्रान्तभुवनम् । स्फुरन्तं भास्वन्तं किल गिलति हा कष्टमपरः 1 परिप्राप्ते काले विलसति विधौ को हि बलवान् ॥ ७६ ॥
चक्रवर्तीन्द्रादिर्न त्राता । कुतः । हि यस्मात् । एक अलङ्घ्यतमः अतिशयेन अलङ्घ्यो दुर्निवार: ।। ७५ । प्राप्तावधो च प्राणिनामन्तके उद्यमं कुर्वाणे कस्तन्निवारणे समर्थ इत्याह- अविज्ञात इत्यादि । व्यपगततनुः शरीररहित: । पापमलिनः कृष्णः । भास्वदित्यादि । भास्वन्तश्च ते दशशतकराश्च सहस्रकिरणा: तैः आक्रान्तं व्याप्तं भुवनं येन । स्फुरन्तं सप्रतापं प्रकाशमानं वा । इत्थंभूतं भास्वन्तम् आदित्यम् । परिप्राप्ने काले लब्धावसरे । विलसति विजृम्भमाणे सति विधौ ।। ७६ ।। स च अन्तकः किं कृत्वा क्व प्राणिनं हन्तीत्याह-- उत्पाद्येत्यादि ।
नीचे व्यन्तरों, भवनवासियों एवं नारकियोंको और ऊपर वैमानिक देवोंको स्थापित किया । इतना करनेपर भी वह उन मनुष्यों को मरने से नहीं बचा सका - आयुके पूर्ण होनेपर समयानुसार उन सबका मरण होता ही है । अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त जो लोककी रचना है वह स्वाभाविक ही है । उसके उपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि यह लोककी रचना क्या है, मानो ब्रह्माने मनुष्योंकी रक्षाके लिये ही यह सब किया है, फिर भी खेद है कि वे मृत्युपे सुरक्षित नहीं रह सके । तात्पर्य यह कि मनुष्य ही नहीं, किन्तु जितने भी शरीरधारी प्राणी हैं। वे सब समयानुसार मरणको अवश्य प्राप्त होनेवाले हैं - उन्हें मृत्युसे बचानेवाला कोई भी नहीं है || ७५ ॥ जिसका स्थान अज्ञात है, जो शरीरसे रहित है, तथा जो पापसे मलिन अर्थात् काला है वह दुष्ट राहु निश्चयसे प्रकाशमान एक हजार किरणोंरूप हाथोंसे लोकको व्याप्त करनेवाले प्रतापी सूर्यको कवलित करता है; यह बड़े खेदकी बात है । ठीक है - समयानुसार कर्मका उदय आनेपर दूसरा कौन बलवान् है ? आयुके पूर्ण होनेपर ऐसा कोई भी बलिष्ठ प्राणी
1 मु (जै. नि.) कष्टमपरं ।