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‘मनसो नियन्त्रणमित्] कतव्यम्
अवेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिबिनते वचःपर्णकोणे विपुलनयशाखाशतयुते ।
नियन्त्रणमित्यं कर्तव्यमित्याह-. अनेकान्तेत्यादि । अनेकान्तो धर्म आत्मा स्वरूपं येषां ते च ते अश्वि ते एव प्रसवफेलानि पुष्पफलानि, तेषां भारः संघातस्तेन विनते । वच:- पाकीणे वांसि संस्कृतप्राकृतवचनानि सान्येव पनि तै: आकीर्षे युक्ते । विपुलेत्यादि---विपुला: प्रचुराः ते च से
रखता है । इस प्रकारसे उसका राज्य निःसन्देह सुरक्षित रहता है। इसी प्रकारसे जो विवेकी साधु मुनिपदसे भ्रष्ट करनेवाले हिंसाजनक आरम्भादिरूप बाह्य शत्रुओंसे रहित होकर राग-द्वेषादिरूप अन्तरङग शत्रुओंको भी जीतनेके लिये भोजन-शयनादि क्रियाओंमें सदा सावधान रहता हैसंयम व तपसे भ्रष्ट नहीं होता है-वह भी निश्वयसे अपने साधुपदको सुरक्षित रखकर निराकुल सुखको प्राप्त करता है ।।१६९।। जो श्रुतस्कन्धरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप फूल एवं फलोंके भारसे अतिशय झुका हुआ है, वचनोंरूप पत्तोंसे व्याप्त है, विस्तृत नयोंरूपे सैकडो शाखाओंसे युक्त है, उन्नत है, तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञानरूप जडसे स्थिर है उस श्रुतस्कन्धरूप वृक्षके ऊपर बुद्धिमान साधुके लिये अपने मनरूपी बंदरको प्रतिदिन रमाना चाहिये ॥विशेषार्थ-जिसे प्रकार बंदर स्वभावसे यद्यपि अतिशय चंचल होता है, परंतु यदि उसे फल-फूलोंसे परिपूर्ण कोई विशाल वृक्ष उपलब्ध हो जाता है तो वह उपद्रवं करना छोडकर उसके ऊपर रम जाता है। इसी प्रकार प्राणियोंकर मन भी अतिशय चंचल होता है, उसके निमित्तसे ही प्राणी बाह्य पर पदार्थोमें इष्टानिष्टकी कल्पना करके राग-द्वेषको प्राप्त होते हैं। साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या, किन्तु कभी कभी साधुओंका भी मन चंचल हो उठता है-वे भोजनादिके विषयमें राग-द्वेषका अनुभव करने लगते हैं। इसीलिये यहां ऐसे ही साधुको लक्ष्य करके यह उपदेश दिया गया है कि वह बन्दरके समान चंचल अपने मनको श्रुतरूप वृक्षके ऊपर