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आत्मानुशासनम्
[श्लो० १६९
इह विनिहतबह्वारम्भबाह्योरुशत्रोस्पचितनिजशक्तेनपिरः कोभ्यपाय:। अशनशयनयानस्थानदत्तावधान:कुरु तव परिरक्षामान्तरान् हन्तुकामः ॥१६९
निधिम् अपरित्यजन्तः सर्वसंगपरित्यागं कृत्वा रागनिर्मलनाय यतन्तामिति शिक्षा प्रयच्छन्नाह-इहेत्यादि । तव नापरः कोऽप्यपाय : दुःखहेतुकः । कथंभूतस्येत्याहविनिहतेत्यादि। बहोः सावद्यकर्मण: आरम्भः बहारंभः विनिहतो बह्वारंभ एव बाह्य ऊरुर्महान् शत्रुर्येन। उपचितनिजशक्तेः उपचिता पुष्टि नीता संयमानुष्ठानेन निजा शक्तिर्येन । दत्तावधानः प्रयत्नपरः सन् । कुरु परिरक्षां संयमस्य । आन्तरान् रागादीन् ॥१६९।। मनसो नियन्ऋगो चात्मनो रक्षा रागादिप्रक्षयश्च स्यात् । तस्य च
करते हैं और तत्पश्चात् उसे छोड भी देते हैं । अभिप्राय यह है कि पूर्वमें तप-संयमादिको स्वीकार करके भी जो पीछे फिरसे विषयोंमें अनुरक्त होकर उसे छोड़ देता है इस प्रकारका हीन मनुष्य समझना चाहिये जो कि पूर्वमें अमृतको पी करके फिर पीछे उसे वमन द्वारा बाहिर निकाल देता है ॥१६८॥ हे भव्य ! बहुत पापकर्मके आरम्भरूप बाहिरी शत्रुको नष्ट करके अपनी आत्मीक शक्तिको बढा लेनेवाले तेरे लिये अन्य कोई भी दुखका कारण नहीं हो सकता है । तू राग-द्वेषादिरूप आन्तरिक शत्रुओंको नष्ट करनेका अभिलाषी होकर भोजन,शयन, गमन एवं स्थिति आदि क्रियाओंके विषयमें सावधान होता हुआ अपने संयमकी रक्षा कर ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार राजाको राज्यको भ्रष्ट कर देनेवाले बाह्य और अभ्यन्तर दो प्रकारके शत्र होते हैं उसी प्रकार मुनियोंको भी उस पदसे भ्रष्ट कर देनेवाले वे ही दो प्रकारके शत्रु होते हैं । यदि राजा बुद्धिमान है तो वह जिस प्रकार अपने बाह्य शत्रुओंकोविद्वेषी अन्य राजा आदिको- अपने अधीन रखता है, उसी प्रकार वह अपने काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष रूप अन्तरंग शत्रुओं ( अयुक्तितः प्रणीताः काम-क्रोध-लोभ-मद-मान-हर्षाः क्षितीशानाम तरङगोऽरिषड्वर्गः । नी. वा. अरिषड्वर्गसमुद्देश १. ) को भी वशमें