________________
अहो हीनपुण्याः संयमं त्यजन्ति
विशुद्धयति दुराचारः सर्वोऽपि तपसा ध्रुवम् 1 करोति मलिनं तच्च किल सर्वाधरः परः ॥१६७५ सन्त्येव कौतुकशतानि जगत्सु कि तु
-२६४ ]
विस्मापकं तदलमेतदिह द्वयं नः । पीत्वामृतं यदि वमन्ति विसृष्टपुण्याः संप्राप्य संयमनिधि यदि च त्यजन्ति ॥ १६८
१५७
इन्द्रादिभिर्वन्द्यात् तपसः ।। १६६ ॥ येन च तपसा महापापप्रक्षालनं भवति तदपि मलिनतां नयन्ति नीचा इत्याह-विशुद्धयतीत्यादि । दुराचारः ब्रह्महत्यादिविधायी । ध्रुवं निश्चितम् । तच्च तपः । मलिनं सातिचारम् । किल इत्याश्चयें -सर्वाधरः निकृष्ट: । पर: अपरः अन्यः ॥ १६७॥ आश्चर्यहेतूनां मध्ये तपस्त्यागिने : अत्याश्चर्यहेतुत्वं दर्शयन्नाह - सन्त्येवेत्यादि । विस्मापकं विस्मयजनकम् । नः अस्माकम् । तत् कौतुकम् । अलम् अत्यर्थेन । इह जगति | एतद्वक्ष्यमाणद्वयम् । विसृष्टपुण्याः परित्यक्तपुण्याः || १६८ ।। तस्मात्संयम - कितने आश्चर्य की बात है । ऐसे साधुको उस अज्ञान बालकसे भी अधिक मूर्ख समझना चाहिये ॥१६६॥ जिस तपके द्वारा नियमतः सब ही दुष्ट आचरण शुद्धिको प्राप्त होता है उस तपको भी दूसरा निकृष्ट मनुष्य मलिन करता है ॥ विशेषार्थ - जो जल वस्तुकी मलिनता को दूर कर उसे शुद्ध करता है उस जलको ही यदि कोई गंदला करता है तो वह जिस प्रकार निन्दाका पात्र होता है, उसी प्रकार जो तप पूर्वोपार्जित पापको नष्ट करके आत्माको शुद्ध करनेवाला है उसे ही यदि कोई दुश्चरित्र साधु अपने पापाचरणसे मलिन करता है तो वह सबसे नीच हीं कहा जावेगा । इस प्रकारके दुराचरण से न जाने उसको कितने महात् दुख सहने पडेंगे ।। १६७।। लोकमें आश्चर्यजनक सैकडों कौतुक हैं, परन्तु उनमें से ये दो कार्य हमें अतिशय आश्चर्यजनक प्रतीत होते हैं । प्रथम तो आश्चर्य हमको उनपर होता है जो कि पहिले तो अमृतका पान करते हैं और फिर पीछे वमन करके उसे निकाल देते हैं । दुसरा आश्चर्य उनके ऊपर होता है जो कि पूर्वमें तो विशुद्ध संयमरूप निधिको ग्रहण
1. मु सर्वाधरोऽपरः ।