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सर्वसंगपरित्याग एव सुखम् १७९ हानेः शोकस्ततो दुःख लाभाद्रागस्ततः सुखम् । तेनः हानावशोकः सन् सुखी स्यात्सर्वदा सुधीः ॥ १८६॥ सुखी सुखमिहान्यत्र दुःखी दुःखं समश्नुते । सुखं सकलसंन्यासो दुःखं तस्य विपर्ययः ॥ १८७॥
फस्मिश्चिदात्मीये कुतश्चायं शोको जायते किंहेतुश्चेत्याह!- हानेरित्यादि । सुखी स्यात्सर्वदा सुधी: सुविवेकी सर्वदा अभिलषितार्थानां संपत्तिविपत्त्यवस्ययोः सुखी स्यात् ।। १८६ । य: अत्र सुखी स: अन्यत्र कीदृश इत्याह- सुखीत्यादि । समश्नुते
और फिर उससे सुख होता है । इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्यको इष्टको हानिमें शोकसे रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिये । विशेषार्थ--- दुखका कारण शोक और उस शोकका भी कारण इष्टसामग्रीका अभाव है। इसी प्रकार सुखका कारण राग और उस रागका भी कारण उक्त इष्टसामग्रीकी प्राप्ति है। परन्तु यथार्थमें यदि विचाग करें तो कोई भी बाह्य पदार्थ न तो इष्ट है और न अनिष्ट भी.- यह तो अपनी रुचिके अनुसार प्राणीकी कल्पना मात्र है। कहा भी हैअनादौ सति संसारे केन कस्य न बन्धुता। सर्वथा शत्रुभावश्च सर्वमेतद्धि कल्पना ।। अर्थात् संसार अनादि है । उसमें जो किसी समय बन्धु रहा है वहीं अन्य समयमें शत्रु भी रह सकता है। इससे यही निश्चित होता है कि इस अनादि संसारमें न तो वास्तवमें कोई मित्र है और न कोई शत्रु भी। यह सब प्राणीकी कल्पना मात्र है । क्ष. च. १-६१. इसीलिये विवेकी जन ममत्वबुद्धिसे रहित होकर इष्टकी हानिमें कभी शोक नहीं करते । इससे वे सदा ही सुखी रहते हैं ।। १८६ ॥ जो प्राणी इस लोकमें सुखी है वह परलोकमें भी सुखको प्राप्त होता है तथा जो इस लोकमे दुखी है वह परलोकमें भी दुखको प्राप्त करता है। कारण यह कि समस्त इन्द्रियविषयोंसे विरक्त होनेका नाम सुख और उनमें आसक्त होनेका नाम ही दुख है ॥ विशेषार्थ---- आकुलताका नाम
___ 1 ज कस्यायं हेतुश्च । . . . . . . ----