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आत्मानुशासनम् [श्लो० १४५त्यक्तहेत्वन्तरापेक्षौ गुणदोषनिबन्धनौ। यस्यादानपरित्यागौ स एव विदुषां वरः ॥ १४५ ॥ हितं हित्वाऽहिते स्थित्वा दुर्छार्दुखायसे भृशम् । विपर्यये तयोरेधि त्वं सुखायिष्यसे सुधीः ॥ १४६ ॥ इमे दोषास्तेषां प्रभवनभमीभ्यो नियमतः गुणाश्चते तेषामपि भवनमेतेभ्य इति यः ।
खेतोः अन्यो हेतुर्हेत्वन्तरं रागद्वेषादि, त्यक्ता हेत्वन्तरे अपेक्षा ययोस्तो त्यक्तहेत्वन्तरापेक्षौ। गुणदोषनिबन्धनौ गुणा: सुगतिसुखहेतुत्वादिः, दोषो दुर्गतिदुःखहेतुत्वादिः । आदानपरित्यागौ आदानं सम्यदर्शनादे:, परित्यागो मिथ्यादर्शनादेः ।।१४५।। विपक्षे दूषणमाह-- हितमित्यादि । हितं सम्यग्दर्शनादि । हित्वा त्यक्त्वा । अहिते मिथ्यादर्शनादौ स्थित्वा । दुर्थी: विपर्यस्तबुद्धिः । दु:खायसे दुःखमात्मन: करोषि । विपर्यय तयोरेधि एधि भव । क्व । तयोविपर्यये हिताहितयोः स्थानपरित्यागौ । सुखायिष्यसे सुखम् आत्मनः करिष्यसि ॥ १४६ ।। हिते स्थानम् अहिते त्यागश्च गुणदोषयोः सहेतुकयो: ज्ञातयोरेवं
आदिका)परित्याग करता है वही विद्वानोंमें श्रेष्ठ गिना जाता है ॥१४५।। हे भव्य ! तू दुर्बुद्धि (अज्ञानी) होकर जो सम्यग्दर्शन आदि तेरा हित करनेवाले हैं उनको तो छोडता है और जो मिथ्यादर्शनादि तेरा अहित करनेवाले हैं उनमें स्थित होता है । इस प्रकारसे तू अपने आपको दुःखी करता है । तू विवेकी होकर इससे विपरीत प्रवृत्ति कर, अर्थात् अहितकारक मिथ्यादर्शनादिको छोडकर हितकारक सम्यग्दर्शनादिको ग्रहण कर । इस प्रकारसे तू अपनेको सुखी करेगा ॥ १४६ ॥ ये (मिथ्यादर्शन आदि) दोष हैं और इनकी उत्पत्ति नियमतः इनसे (दर्शनमोहनीय आदिसे) होती है, तथा ये (सम्यग्दर्शनादि) गुण हैं और उनकी भी उत्पत्ति इनसे (दर्शनमोहनीयके उपशम, क्षय और क्षयोपशम आदिसे) होती है, ऐसा निश्चय करके जो छोडने योग्य कारणोंको छोडता है और हितके कारणोंको स्वीकार करता है वह विद्वान् है, वही सम्यक्चारित्रसे सम्पन्न है, और 1 ज स सुगतिः ।