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-१४७] गुण-दोषपरिज्ञाने हिताहितप्रवृत्ति-निवृत्ती १३९
त्यजस्त्याज्यान हेतून् झटिति हितहेतून् प्रतिभजन्
स विद्वान् सवृत्तः स हि स हि निधिः सौख्ययशसोः ॥ १४७ ॥ भवतीति दर्शयन्नाह -- इमे इत्यादि । इमे प्रतीयमाना मिथ्यावर्शनादयो, रागादयश्च । तेषां मिथ्यादर्शनादीनां प्रभवनम् उत्पत्तिः । अमीभ्यो दर्शनमोहादिभ्यो मिथ्योपदेशादिभ्यश्च विषयेभ्यश्च! वा चारित्रमोहादिभ्यश्च । नियमतः अवश्यंभावेन । गुणा: सम्यग्दर्शनादयो वीतरागत्वादयश्च । एते प्रतीयमानाः । तेषामपि गुणानामपि । भवनम् उत्पत्तिः । एतेभ्यो दर्शनमोहक्षयोपशमादिभ्य: निसर्गाधिगमादिभ्यश्च चारित्रमोहक्षयोपशमादिभ्यश्च परिग्रहपरित्यागादिभ्यश्च । त्याज्यान् हेतून् दोषजनकान् । हितहेतून् गुणजनकान् । प्रतिभजन स्वीकुर्वन् ॥१४७॥ विवेकिना हिताहितयोवृद्धिनाशौ कर्तव्यो, ततोऽन्यत्र वृद्धिनाशयोः वही सुख एवं कोर्तिका घर भी है ॥ विशेषार्थ-- जिसे गुण और दोषके विषयमें विवेक उत्पन्न हो चुका है उसे यह निश्चय हो जाता है कि सम्यग्दर्शनादि गुण हैं, क्योंकि वे आत्माका कल्याण करनेवाले हैं; तथा इनके विपरीत मिथ्यादर्शन आदि दोष हैं, क्योंकि वे आत्माका अहित करनेवाले हैं। कहा भी है- न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ।। अर्थात् तीनों काल और तीनों लोकोंमें सम्यक्त्वके समान दूसरा कोई प्राणियोंका हितकारक नहीं है और मिथ्यात्वके समान अन्य कोई अहितकारक नहीं है । र. श्रा. ३४. इस प्रकार गुण-दोषोंका निश्चय हो जानेपर जो दोषोंके कारणोंको- मिथ्या उपदेश एवं विषयकांक्षा आदिको-खोजकर उन्हें छोड देता है और गुणोंके कारणोंको- सदुपदेश एवं विषयतृष्णानिवृत्ति आदिको-- खोजकर उन्हें ग्रहण कर लेता है वह मोक्षमार्गका पथिक हो जाता है। कारण यह कि उसे जो विवेकपूर्वक गुण-दोषका परिज्ञान हुआ है वह तो हुआ सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान; तथा गुणके कारणोंका ग्रहण और दोषके कारणोंका परित्याग यह हुआ सम्यक्चारित्र; इस प्रकारसे वह रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होकर शीघ्र ही अविनश्वर सुखको प्राप्त कर लेता है ॥ १४७ ॥ पूर्व जन्ममें संचित किये गये पुण्य और पाप कर्मके
1 ज · विषयेभ्यश्च ' इति नास्ति ।