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आत्मानुशासनम्
साधारण सकलजन्तुषु बुद्धिनाशौ जन्मान्तराजितशुभाशुभकर्मयोगात् । धीमान् स यः सुगतिसाधनवृद्धिनाशः तद्वचत्ययाद्विगतधीरपरोऽभ्यधायि ॥ १४८ ॥
[ श्लो० १४८
सकलप्राणिसाधारणत्वात् इत्याह-- साधारणावित्यादि । साधारणौ सकलजन्तुषु विद्यमानौ । आयु: शरीर-संपदादीनां वृद्धिनाशौ । कस्मात् । जन्मान्तराजितशुभाशुभकर्मयोगात् पूर्वभवोपार्जितपुण्य-पापसद्भावात् । सुगतीत्यादि । सुगतेर्मुक्ते : माधने सिद्धौ वृद्धिनाशौ यस्य । वृद्धि: सम्यग्दर्शनादीनाम्, नाशो मिथ्याज्ञानादीनाम् । तद्वधत्ययात् दुर्गतिसाधनवृद्धिनाशात् । अभ्यधायि प्रतिपादितः ॥ १४८ ॥ ये च सुगतिसाधनवृद्धिकरास्ते प्रविरला इति
उदयसे जो आयु, शरीर एवं धन-सम्पत्ति आदिकी वृद्धि और उनका नाश होता है वे दोनों तो समस्त प्राणियों में हीं समानरूपसे पाये जाते हैं । परन्तु जो सुगति अर्थात् मोक्षको सिद्ध करनेवाले वृद्धि एवं नाशको अपनाता है वह बुद्धिमान्, तथा दूसरा इनकी विपरीततासे - दुर्गति के साधनभूत वृद्धि-नाशको अपनाने से - निर्बुद्धि ( मूर्ख) कहा जाता है ॥ विशेषार्थ ---- लोकमें जिसके पास धन-सम्पत्ति आदिकी वृद्धि होती है। वह बुद्धिमान् तथा जिसके पास उसका अभाव होता है वह मूर्ख माना जाता है । परन्तु यथार्थ में यह अज्ञानता है, क्योंकि धन-सम्पत्ति आदिको वृद्धिका कारण बुद्धि नहीं है, बल्कि प्राणी के पूर्वोपार्जित पुण्यका उदय ही उसका कारण है । इसी प्रकार उक्त सम्पत्तिके नाशका कारण भी मूर्खता नहीं है, बल्कि प्राणी के पूर्वोपार्जित पापका उदय ही उसका कारण है । बुद्धिमान् तो वास्तवमें उसे समझना चाहिये कि जो समीचीन सुख (मोक्ष) के साधनभूत सम्यग्दर्शनादिको बढाता है तथा उसमें बाधा पहुंचानेवाले मिथ्यादर्शनादिको नष्ट करता है । और जो इसके विपरीत आचरण करता है-- नरकादि दुर्गतिके साधनभूत मिथ्यादर्शनादिको बढाता है तथा उसको रोकनेवाले सम्यग्दर्शनादिको नष्ट करता है - उसे वास्तवमें मूर्ख समझना चाहिये ॥ १४८ ॥