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सम्यग्दर्शनस्वरूपम्
ध्यज्ञानशुद्धिप्रदं त्रीणि अज्ञानानि कुमति-श्रुतावषयः तेषां शुद्धिपदं समोचीनताकरम् । निश्चिन्वन् निश्चितं विषयतां नयन् । जीवाजीवास्रवन्धतंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वमिति सप्ततत्त्वानि पुण्यपापपदार्थाभ्यां सहितानि नव पदार्था उच्चने । अचलप्रासादं न
यहां अमुक तत्त्वका स्वरूप बतलाया गया है क्या वह वास्तवमें ऐसा ही है अथवा अन्य प्रकार है। (२) कांक्षा-पाप एवं दुख के कारणीभूत कर्माधीन सांसारिक सुखको स्थिर समझकर उसकी अभिलाषा रखना। (३) विचिकित्सा- मुनि आदिके मलिन शरीरको देखकर उससे घृणा करना । यद्यपि यह मनु यशरीर स्वभावतः अपवित्र है, फिर भी चूंकि सम्यग्दर्शन आदिरूप रत्नत्रयका लाभ एक मात्र इसी मनुष्यशरीरसे हो सकता है अतएव वह घृणाके योग्य नहीं है । यदि वह घृणाके योग्य है तो केवल विषयभोगको दृष्टिसे ही है, न कि आत्मस्वरूपलामकी दृष्टिसे। (४) मूढदृष्टि- कुमार्ग अथवा कुमार्गगामी जीवोंकी मन, वचन अथवा कायसे प्रशंसा करना ! (५) अनुपगूहन-- अज्ञानी अथवा अशक्त (व्रतादिके परिपालनमें असमर्थ) जनोंके कारण पवित्र मोक्षमार्गके विषयमें यदि किसी प्रकारको निन्दा होती हो तो उसके निराकरणका प्रयत्न न करके उसमें सहायक होना । (६) अस्थितीकरण- मोक्षमार्गसे डिगते हुए भव्य जीवोको देख करके भी उन्हें उसमें दृढ करनेका प्रयत्न न करना। (७) अवात्सल्य-- धर्मात्मा जोवोंका अनुरागपूर्वक आदरसत्कार आदि न करना, अथवा उसे कपटभावसे करना। (८) अप्रभावना- जैनधर्मके विषयमें यदि किन्हींको अज्ञान अथवा विपरीत ज्ञान है तो उसे दूर करके उसकी महिमाको प्रकाशित करनेका उद्योग न करना । इस प्रकार ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष हैं जो उसे मलिन करते हैं। इतना यहां विशेष समझना चाहिये कि इन दोषोंकी सम्भावना केवल क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनके विषयमें ही हो सकती है, कारण कि वहां सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय रहता है। औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शनके विषयमें उक्त दोषोंको सम्भावना नहीं है । श्लोकमें जिन