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आत्मानुशासनम् [लो०-११आज्ञामार्गसमुद्भवमपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् विस्ताराभ्यां भवमवपरमावादिगाढं च ॥ ११ ॥ आजासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाजयव
त्यक्तग्रन्थप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तेः । -लम्ति प्राणिनो यस्मादमी अचल: म चामो प्रातदश्त्र मोक्षप्तन् आरोहतई चटनाम् । विनेयविदुपां शिप्यपण्डिनानाम् ।।१०।। इदानीं दविधसम्यक वसूचनाय 'आज्ञेत्यादि' संग्रहश्लोकमाह ।।११।। अस्यैव विवरणार्थमाशासम्यक्त्वमित्याद्याहयदुत उत अहो यत् विचितं श्रद्धानम् । तरागाज्ञयैव ग्रास्त्रपठनमन्तरेण सर्वज्ञवचनोपदेशमावेगव वोरागाज्ञयेति । वा इव (?) गाढसम्यग्दर्शनपर्यन्तं सर्वत्र संबन्धनीयम् । कथं विरचितम् । त्यक्तग्रन्थप्रपञ्च ग्रन्थयवणं विना ।
संवेग आदि गुणोंसे इस सम्यग्दर्शनको वृद्धिंगत बतलाया है वे ये हैं--- (१) संवेग अर्थात् संसारके दुःखोंसे निर.तर भयभीत रहना, अथवा धर्म में अनुराग रखना। (२) निर्वेद-- संसार, शरीर एवं भोंगोंसे विरक्ति । (३) निन्दा-- अपने दोषोंके विषयमें पश्चाताप करना । (४) गर्हा- किये गये दोषोंको गुरुके आगे प्रगट करके निन्दा करना । (५) उपशम-- क्रोधादि विकारोंको शान्त करना । (६) भक्ति-- सम्यग्दर्शन आदिके विषयमें अनुराग रखना। (७) वात्सल्य-- धर्मात्मा जनसे प्रेमपूर्ण व्यवहार करना । (८) अनुकम्पा-- प्राणियोंके विषयमें दयाभाव रखना । इस प्रकार इन गुणोंसे सहित और उपर्युक्त पच्चीस दोषोसे रहित वह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी प्रासादको प्रथम सीढीके समान है । इसीलिये उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप इन चार आराधनाओंमें प्रथम स्थान प्राप्त है ॥१०॥ वह सम्यग्दर्शन आज्ञासमुद्भव, मार्गसमुद्भव, उपदेशसमुद्भव, सूत्रसमुद्भव, वोजसमुद्भव, संक्षेपसमुद्भव, विस्तारसमुद्भव, अर्थसमुद्भव, अवगाढ और परनावगाढ; इस प्रकारसे दस प्रकारका है ॥११॥ दर्शनमोहके उपशान्त होनेसे ग्रन्थश्रवणके विना केवल वीतराग भगवान्की आज्ञासे हो जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है उसे आज्ञासम्यक्त्व कहा गया है। दर्शनमोहका उपशम होनेसे ग्रन्थश्रवणके विना जो कल्याणकारी मोक्ष