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राजलक्ष्म्या विनश्वरत्वम्
आदावेव महावलेरविचलं पट्टेन बद्धा स्वयं रक्षाध्यक्षभुजासिपञ्जरवृता सामन्तसंरक्षिता । लक्ष्मीर्दीपशिखोपमा क्षितिमता हा पश्यतां नश्यति प्रायः पातितचामरानिलहतेवान्यत्र काशा नृणाम् ॥६२॥
प्रथमत एव । महाबलैः सातिशयसामोपेतः मन्त्रिभिः महामण्डलोकादिभिः । अविचलं यथा भवत्येवम् । स्वयं पट्टेन बद्धा । पश्चात् । रक्षेत्यादि । रक्षाध्यक्षाः अङगरक्षाः तेषां भुजेषु असिपञ्जरः खडगसंघात: तेन वृता । ततो बहिः सामन्तसंरक्षिता : इत्यंभूतापि लक्ष्मीः । क्षितिनतां राज्ञाम् । हा कष्टम् । पश्यतां नश्यति । किंविशिष्टा । दीपशिखोपमा प्रदीपशिखानुल्या चञ्चलेत्यर्थः । कथंभूतेवेत्याह प्राय इत्यादि । प्रायोऽनवरतं संपातितानि चाराणि च तेषाम् अनिलेन हतेव । अन्यत्र प्राणिमात्रलक्ष्मी: लक्ष्भ्यां पुत्र कलत्रादौ वा । काशा कः समाश्वासः ।।६२।। यत्र शरीरे लक्षम्या पट्टबन्धस्तव कृतः तत्कीदृशं किं च
स्त्री एवं पुत्र आदि कौटुम्बिक सम्बन्ध भी इस शरीरके ही आश्रित हैंउनका सम्बन्ध कुछ अमतिक आत्माके साथ नहीं है। इस प्रकार उपर्यक्त सब ही दुःखोंका मूल कारण वह शरीर ही ठहरता है। अब जब निरंतर साथमें रहनेवाला वह शरीर भी सुखका कारण नहीं है तब भला गृह आदि अन्य पदार्थ तो सुखके कारण हो ही कैसे सकते हैं ? इस प्रकार विचार करनेपर सुखका कारण उस तृष्णाका अभाव (संतोष)ही सिद्ध होता है । वह यदि प्राप्त है तो धनके अधिक न होनेपर भी प्राणी निराकुल रहकर सुखका अनुभव करता है, किन्तु उसके विना अटूट सम्पत्तिके होनेपर भी प्राणी निरंतर विकल रहता है ॥ ६१ ।। जो राजाओंको लक्ष्मी सर्वप्रथम महाबलवान् मंत्री और सेनापति आदिके द्वारा स्वयं पट्टबन्धाके रूपमें निश्चलतासे बांधी जाती है,जो रक्षाधिकारी (पहारेदार) पुरुषोंके हाथोंमें स्थित खड्गसमूहसे वेष्टित की जाती है,तथा जो सैनिक पुरुषोंके द्वारा रक्षित रहती है,वह दीपककी लोके समान अस्थिर राजलक्ष्मी भी दुराये जानेवाले चामरोंके पवनसे ताडित हुईके समान जब देखते ही देखते नष्ट हो जाती है तब भला अन्य साधारण मनुष्योंकी