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[ श्लो० ६१
आत्मानुशासनम्
fi मोहाहिमहाबिलेन सदृशा देहेन गेहेन वा देहिन् याहि सुखाय ते समममुं मा गाः प्रमादं सुधा ॥ ६१ ॥
महाविलेन देहेन । कथं भूतेन । सदृशा गेहेन गृहतमानेन । एतत् सर्वम् इत्थंभूतं ज्ञात्वा देहि शमं याहि । अमुम् अर्थाभिलाषोपशमलक्षणम् । किमर्थम् । सुखा सुखनिमित्तम् ते शब्द: प्रत्येकमभिसंबध्यते । तत्कृत्यं ते किमत्यादि । मा गाः प्रमादम् अतात्पर्यं मा कार्षीः ।। ६१ ।। अस्यैवोपशनस्य दाढयंविधानार्थ मादावेवेत्याह- आदावेव
भी उस सुखका कारण नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि उनका संयोग होनेपर यदि उनकी प्रवृत्ति अनुकूल हुई तब तो उनमें अनुराबुद्धि उत्पन्न होती है, जिससे कि उनके भरण-पोषण एवं रक्षण आदिको चिंता उदित होती है। और यदि उनकी प्रवृत्ति प्रतिकूल हुई तो इससे उद्वेग उत्पन्न होता है। ये दोनों (राग - द्वेग ) ही कर्मबन्धके कारण हैं । उक्त बन्धुव में भी मुख्यता स्त्रीको होती है । कारण कि उसके ही निमित्त कुटुम्बकी वृद्धि और तदर्थ धनार्जनकी चिन्ता होती है इसीलिये तो यह कहनेको आवश्यकता हुई कि " स्त्रीतः चित्त निवृत्तं चेन्ननु वित्तं किमीहसे। मृतमण्डनकल्पो हि स्त्री निरीहे धनग्रहः ॥" अर्थात् हे मन ! यदि तू स्त्रीका ओरसे हट गया है - तुझे स्त्रीकी चिंता नहीं रही है - तो फिर तू धनकी इच्छा क्यों करता है? अर्थात् फिर धनकी इच्छा नहीं रहना चाहिये, क्योंकि, स्त्रीकी इच्छा न रहनेपर फिर धनका उपार्जन करना इस प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकारसे कि मृत शरीरका आभूषण आदिसे श्रृंगार करना । सा ध ६-३६, इसी प्रकार जिस शरीरको अपना समझकर अभीष्ट आहार आदिके द्वारा पुष्ट किया जाता है वह भी सुखका कारण न होकर दुखका ही कारण होता है । कारण यह कि वह अनेक रोगोंका स्थान है और उसके रोगाक्रान्त होनेपर जो वेदना उत्पन्न होती है उसके निवारणके लिये प्राणी विकल होकर प्रयत्न करता है । फिर भी कभी न कभी वह छूटता ही है । इसके अतिरिक्त उपर्युक्त