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धनार्दनां सुखाहेतुवन्
तत्कृत्यं किमिहेन्धनैरिव धनराशग्निसंधुक्षणः संबन्धेन किमङ्ग शश्ववशुभैः संबन्धिभिर्बन्धुभिः ।
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प्युपकारको भविष्यतीत्याशङ्क्य आह-- तत्कृत्यमित्यादि । तत्प्रसिद्धं सुखाद्युपकारलक्षणं कृत्यं कार्य किम् । न किमपि । कैः । धनैः किविशिष्टैः । आशाग्निसंधुक्षपैः आशैव अग्निः तस्य संयुमणैः उद्दीपकैः । तथा सत्यं ( ? ) संबन्धेन पितृपुत्रभार्यादिना । अङग अहो । किं कृत्यम् कैः सह संबन्धेन । संबन्धिभि: वैवाहिकादिभिः बन्धुभिः । कथंभूतैः । शश्वदशुभैः दुर्मतिहेतुतया सदाऽप्रशस्तैः 1 मोहाहीत्यादि । मोह एव अहिः सर्पः
तस्व
अग्निको प्रज्वलित करनेवाले धनसे यहां तुझे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । पापके कारणभूत सम्बधियों ( नातेदारों) एवं अन्य बंधुओं (भ्राता आदि ) के साथ संबंध रखने से तुझे क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं । मोहरूप सर्पके दीर्घ बिल (बांबी) के समान शरीर अथवा गृहसे भी तुझे क्या प्रयोजन है? कुछ भी नहीं । ऐसा विचार कर हे भव्य जीव ! तू सुखके निमित्त उस तृष्णाकी शांति को प्राप्त हो, इसमें व्यर्थ प्रमाद न कर ॥ विशेषार्थं सुख वास्तवमें वही हो सकता है जिसमें आकुलता न हो । वह सुख धानके द्वारा नहीं प्राप्त हो सकता है । कारण यह कि जितना जितना धान बढता है उतनी ही अधिक उत्तरोत्तर तृष्णा भी बढती जाती है, जैसे कि घीके डालनेसे उत्तरोत्तर अग्नि अधिक बढती है । इस प्रकार जहां तृष्णा है- आकुलता है -- वहां भला सुख कहांसे मिल सकता है ? इसके अतिरिक्त जितना कष्ट धनके उपार्जनमें होता है उससे भी अधिक कष्ट उसकी रक्षामें होता है । यदि रक्षण करते हुए भी वह दुर्भाग्यसे कदाचित् नष्ट हो गया तो फिर प्राणीके दुखका पारावार भी नहीं रहता है । इसीलिये तो उसे भी प्राण कहा जाता है । इतना ही नहीं, बहुत-से धनान्ध मनुष्य तो उस धनरूप प्राणकी रक्षा करनेमें वास्तविक प्राण भी दे देते हैं। इससे निश्चित होता है कि धन वास्तवमें सुखका कारण नहीं है । इसी प्रकारसे माता, पिता, पुत्र एवं अन्य सम्बन्धी जनोंका संयोग