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आत्मानुशासनम्
शरणमशरणं वो बन्धवो बन्धमूलं चिरपरिचितद्वारा द्वारमापद्गृहाणाम् । विपरिमृशत पुत्राः शत्रवः सर्वमेतत् त्यजत भजत धर्मं निर्मलं शर्मकामाः ॥ ६० ॥
[ श्लो० ६०
व्यतिरिक्तमन्यदपि वस्तु कीदृशं तवेत्याह-- शरणमित्यादि । शरणं गृहं राजादिर्वा । अशरणम् अरक्षणम् । प्रतिकूलकर्मणोदय ( ? ) प्राप्तेरा (र) वश्यं स्वकार्यकरणात् 1 । द्वारं प्रवेशस्थानम् । विपरिमृशत पर्यालोचयत । सर्वमेतद गृहबन्धुपुत्रकलत्रादिकं त्यजत, धर्मं भजत अनुतिष्ठत । निर्मल निरतिचारम् 1180 11 यद्यपि गृहादयोऽस्माकं नोपकारकास्तथाप्यर्थो
लिप्त ( लीपा गया) होता है उसी प्रकार यह शरीर रुधिर और मांस से लिप्त है, बन्दीगृहकी रक्षा यदि दुष्ट पहरेदार करते हैं तो शरीरकी रक्षा दुष्ट कर्मरूप शत्रु करते हैं, तथा बन्दीगृह जहां बडी बडी सांकलोंसे संयुक्त होता है वहां यह शरीर आयुरूप सांकलसे संयुक्त है, इसीलिये जैसे सांकलोंके लगे रहने से उसमें से बन्दी ( कैदी ) बाहिर नहीं निकल सकते हैं उसी प्रकार विवक्षित ( मनुष्यादि) आयु कर्मका उदय रहनेतक प्राणी भी उस शरीरसे नहीं निकल सकता है। इस प्रकार जब बन्दीगृह और शरीरमें कुछ भेद नहीं है तब यहां यह उपदेश दिया गया है कि जिस प्रकार कोई भी विचारशील मनुष्य दुखदायक बन्दी - गृहमें नहीं रहना चाहता है उसी प्रकार हे भव्यजीव ! यदि तू भी उस बन्दीगृहके समान कष्टदायक इस शरीरमें नहीं रहना चाहता है तो उससे अनुराग न कर ॥ ५९ ॥ हे भव्यजीवो ! जिसे तुम शरण (गृह) मानते हो वह तुम्हारा शरण ( रक्षक) नहीं है, जो बन्धुजन हैं वे राग-द्वेषके निमित्त होने से बन्धके कारण हैं, दीर्घ कालसे परिचयमें आई हुई स्त्री आपत्तियोंरूप गृहोंके द्वारके समान है, तथा जो पुत्र हैं वे अतिशय रागद्वेषके कारण होनेसे शत्रुके समान हैं; ऐसा विचार कर यदि आप लोगोंको सुखकी अभिलाषा है तो इन सबको छोड़कर निर्मल धर्मकी आराधना करें ॥ ६० ॥ हे शरीरधारी प्राणी ! इन्धनके समान तृष्णारूप
1 स कारणात् ।