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आत्मानुशासनम्
. [ श्लो० ६३
दीप्तोमयाग्रवातारिदारूदरगकीटवत् । जन्ममृत्युसमाश्लिष्टे शरीरे बत सोदसि ॥६३॥ नेत्रादीश्वरचोदितः सकलषो रूपादिविश्वाय कि
प्रेष्यः सीदसि कुत्सितव्यतिकरैरंहांस्यलं बृहयन् । तत्र त्वं रति करोषीत्याह-दीप्तेत्यादि । दीप्ते प्रज्वलिले उभयाग्रे यस्य तच्च तत् वातारिदारूच एरण्डकाष्ठं उदरगो मध्य गत: स चासौ कीटश्च स इव तद्वत् । समाश्लिष्टे व्याप्ते । बत कष्टम् । सीदसि दुखमनुभवसि ॥६३॥ एवंविधशरीराश्रितानमिन्द्रियाणां वशो भूत्वा किमित्यनेकधा क्लेशमनुभवसि इति शिक्षा प्रयच्छन्नाह-- नेत्रादीत्यादि । नेत्रादीन्येव ईश्वरः प्रभुः तेषां वा ईश्वरं मनः तेन चोदितः स्वविषये प्रेरित: । सकलुषः आरौिद्रयुक्त: । लझ्मीकी स्थिरताके विषयमें क्या आशा की जा सकती है? अर्थात् नहीं की जा सकती है।। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जिस राजलक्ष्मीकी रक्षा करनेमें अतिशय बलवान् सुभट एवं अन्य बुद्धिमान् मंत्री आदि भी सदा उद्यत रहते हैं वह भी जब पवनसे प्रेरित दीपककी शिखाके समान क्षणभरमें नष्ट हो जाती है तब साधारण मनुष्योंकी अल्प संपत्ति, जिसका कि कोई रक्षण करनेवाला नहीं है, कैसे स्थिर रह सकती है? अर्थात् नहीं रह सकती है । अतएव अविनश्वर सुखकी प्राप्तिके लिये विनश्वर धन-संपत्तिकी अभिलाषाको छोडकर सन्तोषका ही आश्रय लेना हितकर है ॥६२।। हे भव्यजीव ! जिसके दोनों अग्रभाग अग्निसे जल रहे हैं ऐसी एरण्ड (अण्डा) को लकडीके भीतर स्थित कीडेके समान और मृत्युसे व्याप्त शरीरमें स्थित होकर तू दुख पा रहा है, यह खेदको बात है । विशेषार्थ- जिस प्रकार दोनों ओरसे जलती हुई पोली लकडीके भीतर स्थित कोडेका मरण अवश्य होनेवाला है उसी प्रकार जन्म और मरणसे संयुक्त इस शरीरमें स्थित रहनेपर प्राणीका भी अहित अवश्य होनेवाला है । इसीलिये कल्याणके अभिलाषी भव्यजीव शरीरसे निर्ममत्व होकर रत्नत्रयकी प्राप्तिपूर्वक उसे छोडनेका ही प्रयत्न करते हैं ॥ ६३ ॥ हे भव्यप्राणी ! तू नेत्रादि इन्द्रियोंरूप स्वामीसे अथवा नेत्रादि इन्द्रियोंके स्वामीस्वरूप मनसे प्रेरित दासके समान होकर संक्लेशयुक्त होता हुआ रूपादिरूप समस्त विषयोंको प्राप्त करनेके लिये हीनाचरणोंके द्वारा क्यों अतिशय पापोंको