________________
-६५]
धनिनोऽपि दुःखिन एव नीत्वा तानि भुजिष्यतामकलुषो विश्वं विसृज्यात्मवानात्मानं धिनु सत्सुखी धुतरजाः सद्वृत्तिििनर्वृतः ॥ ६४ ॥ अथिनो धनमप्राप्य धनिनोऽप्यवितप्तितः।
कष्टं सर्वेऽपि सीदन्ति परमेकः सुखी सुखी ॥६५॥ प्रेष्यः नेत्रादीनामाधीन: कर्मकरः । किं सीदसि । किमर्थम् । रूपादिप्रपञ्चनिमित्तम् । रूपादिविश्वायेति पाठे रूपाद्यनुभवायेत्यर्थः । किं कुर्वन् सीदसि । अलं बृहयन् अत्यर्थं वृद्धि नयन् । कानि। अंहांसि पापानि । कैः । कुत्सितव्यतिकरैः निकृष्टव्यापारैः। तानि नेत्रादीनि भुजिष्यतां प्रेष्यतां दासत्वं नीत्वा । अकलुषो रागादिरहित: । विश्वं परिग्रहप्रपञ्चम् । विसृज्य परित्यज्य। आत्मवान् जितेन्द्रियः। आत्मानं धिनु प्रीणय । सत्सुखी सुखीयसि सन् (?) । धुतरजाः निराकृतकर्ममल: । निर्वृत: सुखीभूत: अथवा निवृतो मुक्तः । सत्सुखी सन् (त्) शोभनं सुखमस्या. स्तीति ॥६४॥ ननु यतीनां निर्धनत्वात् कथं सुखप्राप्तिरिति वदन्तं प्रति सधननिर्धनाभ्यां यतेः सुखातिशयं दर्शयन्नाह-- अथिन इत्यादि। किं च धनाढ्याधी (दी) नां सुखं परायत्तं तस्माच्च परायत्तात् सुखात् यत्स्वायत्तं कायक्लेशादिदुःख बढाता है और खेदखिन होता है ? तू उन इन्द्रियोंको ही अपना दास बनाकर संक्लेशसे रहित होता हुआ उन रूपादि समस्त विषयोंको छोड दे
और जितेन्द्रिय होकर अपनी आत्माको प्रसन्न कर । इससे तू सदाचरणोंके द्वारा पापसे रहित होकर मुक्तिको प्राप्त करता हुआ समीचीन सुखका अनुभव कर सकता है। विशेषार्थ- यह प्रागी जबतक इन्द्रियोंका दास बनकर उनको सन्तुष्ट करनेके लिये अनेक प्रकारसे अयोग्य आचरण करता है तबतक उसके अशुभ कर्मोका बन्ध होता रहता है जिससे कि उसे कभी शान्ति प्राप्त नहीं होती। परन्तु जब वह जितेन्द्रिय होकर उन इन्द्रियोंको स्वयं दास बना लेता है तब उसकी वह दुराचारमय प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है- बढती हुई विषयाकांक्षा नष्ट हो जाती है । इससे वह शुभ ध्यान (धर्म व शुक्ल) में प्रवृत्त होकर रत्नत्रयको पूर्ण करता हुआ मोक्षको प्राप्त कर लेता है और वहां निरन्तर अव्याबाध सुखका अनुभव करता है ।। ६४ ॥धनाभिलाषी निर्धन मनुष्य तो धनको न पाकर दुखी 1 मु (नि) परमे को मुनि: सुखी । आ.५