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आत्मानुशासनम् . [श्लो० ६६परायत्तात् सुखाद् दुःखं स्वायत्तं केवलं वरम् । अन्यथा सुखिनामानः कथमासंस्तपस्विनः ॥६६॥
तद्वरम् उत्तमं सुखम् । कथंभूतम् । केवलम् इन्द्रियसुखास्पृष्टम् । अन्यथा यदि तदुत्तम सुखं न स्यात् तदा कथम् आसन् संजाताः । के ते। तपस्विनः । किविशिष्टाः सुखिनामान: सुखीति नाम येषाम् ।।६५-६६।। तेषामेव श्लोकद्वयेन गुणप्रशंसां कुर्वन्नाह
होते हैं और धनवान् मनुष्य सन्तोषके न रहनेसे दुखी होते हैं। इस प्रकार खेद है कि सब ही (धनी और निर्धन भी) प्राणी दुखका अनुभव करते हैं। यदि कोई सुखी है तो केवल एक सन्तोषी (तृष्णासे रहित) मुनि ही सुखी है । धनवानोंका सुख पराधीन है। उस पराधीन सुखकी अपेक्षा तो आत्माधीन दुख अर्थात् अपनी इच्छानुसार किये गये अनशन आदिके द्वारा होनेवाला दुख ही अच्छा है । कारण कि यदि ऐसा न होता तो फिर तपश्चरण करनेवाले साधुजन ‘सुखी' इस नामसे यक्त कैसे हो सकते थे? अर्थात नहीं हो सकते थे ।। विशेषार्थ- यदि विचार कर देखा जाय तो संसारमें कोई भी प्राणी सुखी नहीं है प्रायः सब ही दुखी हैं। उनमें निर्धन जन तो इसलिये दुखी हैं कि विना धनके वे अपनी आवश्यकताओंको पूर्ण नहीं कर पाते हैं। इसलिये वे उनकी पूर्तिके योग्य धनको प्राप्त करनेके लिये निरन्तर चिन्तातुर रहते हैं, परन्तु वह उन्हें प्राप्त होता नहीं है । इसके अतिरिक्त वे जब अपने सामने धनवानोंके टाट-वाट (रहन-सहन) को देखते हैं तो इससे उन्हें ईर्ष्या होती है, इस कारण भी वे सदा संतप्त रहते हैं। इससे यदि कोई यह सोचे कि धनवान् मनुष्य सुखी रहते होंगे, सो भी बात नहीं है- वे भी दुखी ही रहते हैं। उनके दुखका कारण असन्तोष-- उत्तरोत्तर बढनेवाली तृष्णा- है । उन्हें इच्छानुसार कितनी भी अधिक धन-सम्पत्ति क्यों न प्राप्त हो जावे फिर भी उन्हें उतनेसे सन्तोष नहीं प्राप्त होता- उससे भी अधिककी चाह उन्हें निरन्तर बनी रहती है । इससे ज्ञात होता है कि जिस प्रकार धन सुखका कारण नहीं है उसी