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तपस्विनां प्रशंसा
यदेतत्स्वच्छन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं सहाय संवासः श्रुतमुपशमैकश्रमफलम् ।
यदेतदित्यादि । एतत् प्रतीयमानम् । यत् स्वच्छन्दम् आत्मायत्तम् । विहरगं प्रवृत्तिः। अकार्पण्यं दीनत्वरहितम् । अशनम् आहारः । आर्य: संसारभीरुभिः गुणवद्भिर्वा । सह संवास: सहावस्यानम् । श्रुतं शास्त्रपरिज्ञानम् । उपशमैकश्रमफलं उपशमो रागाद्यनुदयः स एव धनलाभपूजादि एकम् असहायं श्रमस्य प्रयासस्य
प्रकार निर्धनता दुखको भी कारण नहीं है। सुखका कारण वास्तवमें सन्तोष और दुखका कारण असन्तोष (तृष्णा) है। यही कारण है जो साधु जन सब प्रकारके धनसे रहित होकर भी एक मात्र उसी सन्तोष-धनसे अतिशय सुखी, तथा चिन्ताकुल धनवान् भी मनुष्य अतिशय दुखी देखे जाते हैं । इसके अतिरिक्त वह जो विषयजनित सुख है वह पराधीन है- वह उसके योग्य पुण्य एवं धन आदिको अपेक्षा रखता है । जब ऐसे पुण्य आदिका संयोग होगा तब ही वह सुख प्राणीको प्राप्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त पराधीन होनेसे वह चिरस्थायी भी नहीं है- थोडे ही समयतक रहनेवाला है । अतएव जहां पराधीनता नहीं है उसे ही वास्तविक सुख समझना चाहिये । उस पराधीन सुखकी अपेक्षा तो स्वतन्त्रतासे आचरित अनशनादि तपोंसे उत्पन्न होनेवाला दुख भी कहीं अच्छा है, क्योंकि, उससे भविष्यमें स्वाधीन सुख प्राप्त होनेवाला है । परन्तु वह पराधीन क्षणिक सुख उत्तरोत्तर दुखका कारण होनेसे वास्तवमें दुख ही है ॥ ६५-६६ ॥ साधु जनोंका जो यह स्वतन्त्रतापूर्वक विहार (गमनागमन प्रवृत्ति), दीनता (याचना) से रहित भोजन, गुणी जनोंकी संगति, शास्त्रस्वाध्यायजनित परिश्रमके फलस्वरूप रागादिको उपशान्ति, तथा बाह्य पर पदार्थोमें मन्द प्रवृत्तिवाला मन है; वह सब कौन-से महान तपका परिणाम है, इसे मैं बहुत कालसे अतिशय विचार करनेपर भी नहीं जानता हूं ॥ विशेषार्थ---- यहां गृहस्थोंकी अपेक्षा साधु जनोंको किस प्रकारका सुख प्राप्त होता है, इसका विचार करते हुए सबसे पहिले