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आत्मानुशासनम् [इलो० ६७मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरायाति विमृशन् न जाने कस्येयं परिणतिरुदारस्य तपसः ॥ ६७॥
फलं यत्र । मनो बहिः बाह्यार्थे । मन्दस्पन्दं मन्दप्रवृत्तिकम् । चिराय चिरकालम् । अतिविमुशन्नपि अतिपरिभावयन्नपि । न जाने । परिणति: विपाकः । उदारस्य महतः ।।६७॥ तथा- विरतिरित्यादि । विरतिविषयव्यावृत्ति: । अतुला अनुपमा ।
यह बतलाया है कि उनका गमनागमन व्यवहार स्वतन्त्रतासे होता है-- वे अज्ञानी प्राणियोंको सम्बोधित करनेके लिये जहां भी जाना चाहते हैं निर्भयतापूर्वक जाते हैं। परन्तु गृहस्थोंका जाना-आना व्यापारादिकी परतन्त्रताके कारणसे ही होता है। इसलिये उन्हें उससे सुख नहीं प्राप्त होता । इसके अतिरिक्त उनके पास कुछ न कुछ परिग्रह भी रहता है, इसलिये वे उन निर्ग्रन्थ साधुओंके समान यत्र तत्र स्वतन्त्रतासे जा-आ भी नहीं सकते हैं- उन्हें चोर एवं हिंस्र जन्तुओं आदिका भय भी पीडित करता है । इसके अलावा मुनियोंका भोजन जिस प्रकार याचनासे रहित होता है उस प्रकारका भोजन गृहस्थोंका नहीं होता। कारण यह कि उन गृहस्थोंमें जो दरिद्र हैं वे तो प्रत्यक्षमें याचना करके ही उदरपूर्ति करते हैं। किन्तु जो धनवान् हैं वे भी जिव्हालम्पटताके कारण घरमें तैयार किये गये अनेक प्रकारके पदार्थोमें इच्छानुसार स्वादिष्ट पदार्थोंकी याचना किया ही करते हैं। फिर भी उन्हें जिव्हा इन्द्रियपर विजय प्राप्त कर लेनेवाले उन मुनियोंके समान सुख नहीं प्राप्त होता जो कि केवल शरीरको स्थिर रखनेके लिये विधिपूर्वक अयाचकवृत्तिसे ही आहार ग्रहण करते हैं, न कि स्वादपरतासे । तथा जिस प्रकार मुनियोंका सहवास गुणवान् अन्य मुनिजनोंके साथ और योग्य सद्गृहस्थोंके साथ ही होता है उस प्रकार गृहस्थोपा नहीं होता-- वे स्वार्थवश योग्यायोग्यका विचार न करके जिस किसीके भी साथ सहवास करते हैं । मुनि जहां अपने समयको राग-द्वेषादिको दूर करनेवाले शास्त्रस्वाध्यायादि कार्योमें बिताते हैं वहां गृहस्थका सब समय प्रायः विषयोंके