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शरीरस्य दूरक्षत्वम्
विरतिरतुला शास्त्रे चिन्ता तथा करुणा परा मतिरपि सदैकान्तध्वान्तप्रपञ्चविभेदिनी। अनशनतपश्चर्या चान्ते यथोक्तविधानतो भवति महतां नाल्पस्येदं फलं तपसो विधेः ॥६८॥ उपायक्रोटिदूरक्षे स्वतस्तत इतोऽन्यतः ।
सर्वतः पतनप्राये काये कोऽयं तवाग्रहः । ६९॥J एकान्तेत्यादि । एकान्तमेव ध्वान्तं तमस्तस्य प्रपञ्चो विस्तारस्तस्य विभेदिनी विध्वंसिका । अनशनस्तपश्चर्या संन्यासानुष्टानम् यथोक्तविधानत: आगमोक्तविधिविधानेन । अनतिक्रमेण ।।६८।। ननु तपोविधाने कायपीडा सा च अयुक्ता 'शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः' इत्यभिधानादित्याशङ्क्याह-उपायेत्यादि । दूरक्षे रक्षितुमशक्ये । स्वतः स्वयमेव । ततः विवक्षितात् कार्यकरणात् । इत: परिदृश्यमानाद्धतोः । अन्यतः यतः कुतश्चित् । एवं सर्वतः पतनप्राये उक्तप्रकारेण सर्वस्माद्धेतोः पतन प्रायेण यस्य । आग्रहः संग्रहमें ही बोतता है, जिससे कि वह सदा राग-द्वेषसे कलुषित और व्याकुल रहता है। मुनियोंका मन जहां कदाचित ही बाह्य पदार्थोंको ओर जाता है वहां गृहस्थोंका मन प्रायः निरन्तर बाह्य पदार्थों में ही प्रवृत्त रहता है । इस प्रकार वह साधुओंको प्रवृत्ति अवश्य ही किसी महान् तपके फलस्वरूप है जो कि सर्वसाधारणको दुर्लभ हो है। इससे निश्चित हैं कि जो सुख स्वतन्त्रतामें है वह पराधीनतामें कभी नहीं प्राप्त हो सकता है ॥६७।। इसके अतिरिक्त विषयोंका अनुपम त्याग, श्रतका अभ्यास, उत्कृष्ट दया,निरन्तर एकान्तरूप अन्धकारके विस्तारको नष्ट करनेवाली बुद्धि, तथा अन्तमें आगमोक्त विधिसे अनशन तंपका आचरण अर्थात् आहारके परित्यागपूर्वक समाधिमरण; यह सब महात्माओंको प्रवृत्ति किसी थोडे-से तपके अनुष्ठानका फल नहीं है, किन्तु महान् तपका ही वह फल है ॥६८॥ करोडों उपायोंको करके भी जिस शरीरका रक्षण न स्वयं किया जा सकता है और अन्य किसीके द्वारा कराया जा सकता है, किन्तु जो सब प्रकारसे नष्ट ही होनेवाला है, उस शरीरको रक्षाके विषयमें तेरा कौन-सा आग्रह है ? अर्थात् जब किसी भी प्रकारसे उक्त शरीरको रक्षा
1 (अनशनतपश्चर्या)