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आत्मानुशासनम्
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विधिसे बलवान् कोई नहीं है जब विधि ही प्राणीको उत्पन्न करके स्वयं उसे नष्ट करता
है तब उसकी रक्षा अन्य कौन कर सकता है यमराजका स्थान व काल आदि नियत नहीं है जीवोंकों मृत्युसे रहित स्थानादि देखकर वहां ही
निश्चिन्ततापूर्वक रहना चाहिये स्त्रीशरीर प्रीतिके योग्य नहीं है मनुष्य पर्याय काने गन्नेके समान है शरीर में स्थिति बहुत कालतक सम्भव नहीं है बन्धुजनोंसे आत्महितकर कार्य सम्भव नहीं है धनरूप ईंधनसे तृष्णारूपी आग भडकती ही है, किन्तु
अज्ञानी उसे उससे शान्त मानता है वृद्धावस्थामें धवल बालोंके मिषसे मानो उसकी बुद्धिकी
निर्मलता ही निकलती है भयानक संसाररूप समुद्र में पडकर मोहरूप मगर-मत्स्यादिसे
संरक्षण सम्भव नहीं है घोर तपश्चरणमें प्रवृत्त होनेपर जब शरीरको हरिणियां स्थल
कमलिनी समझने लगें तब ही अपनेको धन्य समझना चाहिये ८८ बाल्यादि तीनों ही अवस्थाओंमें धर्मकी असम्भावना व कर्मकी क्रूरता
८९-९० घृणित वृद्धावस्थामें भी प्राणी निश्चिन्त रहकर आत्महितका
विचार नहीं करता विषयी प्राणी 'अति परिचितमे तिरस्कार व नवीनमें अनुराग
हुआ करता है' इस लोकोक्तिको भी असत्य प्रमाणित
करना चाहता है व्यसनी जन भ्रमरके समान अविवेकी होते हैं बद्धिको पा करके प्रमाद करना योग्य नहीं है पनी व निर्धन अपने कर्मानुसार होते हैं, यह जानकर भी जो धनिकोंकी सेवा करते हैं उनपर खेदप्रकाशन