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प्रस्तावना
श्लोक छंदका लक्ष ग] क्रम
छन्दनाम
छन्दनाम
[ लक्षण
संख्या
संख्या
वृ. र. ३-६२४
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अनुष्ठुभ १०२ श्रुतबोध पृथ्वी (श्लोक)
९ स्रग्धरा शार्दूलवि
५७ वृत्तरत्नाकर १० । मन्दाक्रान्ता क्रीडित
३-१९६ | ११ | वंशस्थ वसंततिलका २६ व.र.३-९६ | १२ | उपेंद्रवज्रा
आर्या २१ श्रुतबोध । १३ । वैतालीय ५ शिखरिणी १५ व र.३-१२३, १४ रथोद्धता
हरिणी १४ । , ३-१२६/ १५ । गीति | मालिनी - ९ , ३-११०
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, ३-१२७
३-५९ ३-४२ २-१२
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२-८
इस ग्रन्थके रचयिता श्री गुणभद्राचार्य हैं। इन्होंने अपने जन्मसे किस नगरको विभूषित किया, माता -पिता उनके कौन थे, तथा वे गृहवासमें कबतक रहे; इत्यादि बातोंको जाननेके लिये कुछ भी सुलभ सामग्री नहीं है। इतना निश्चित है कि वे अपने समयके अपूर्व एवं बहुश्रुत विद्वान् थे। जैसा कि उन्होंने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें स्वयं सूचित किया है, वे श्री जिनसेनाचार्य और श्री दशरथ गुरुके शिष्य थे१ । इन्होंने अपनी प्रतिभाके बलपर अपने गुरुके अपूर्ण कार्यका पूरा किया- श्री जिनसेनाचार्य के अधूरे महापुराणको सम्पूर्ण किया । वे गुरुके अतिशय भक्त थे। उनकी इस गुरुभक्तिका प्रमाण उस समय मिलता है जब वे अपने गुरुदेव श्री जिनसेन स्वामीका स्वर्गवास हो जानेपर उनकी रचनासे शेष रहे आदिपुराणके रचनाकार्यको अपने हाथों लेते हैं। वे कहते हैं- इस शेष महापुराण (आदिपुराण और उत्तरपुराण) की रचनामें यदि मेरे वचन श्रोताजनोंको सुस्वादु (आनन्दजनक) प्रतीत हों तो यह गुरुओंका ही प्रभाव समझना चाहिये । कारण यह कि आम्र आदि फलोंमें जो सुस्वादुता देखी जाती है १. प्रत्यक्षीकृतलक्ष्यलक्षणविधिविश्वोपविद्यां गतः सिद्धान्तान्ध्यवसानयानजनितप्रागल्भ्यवृद्धीद्धधीः । नानानूनयप्रमाणनिपुणोऽगण्यैर्गुणैर्भूषितः शिष्यः श्रीगुणभद्रसूरिरनयोरासीजगद्विश्रुतः॥ उ.पु. प्रशस्ति १४