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आत्मानुशासनम्
पूर्व प्रतिके समान इसमें भी कहीं कहींपर अर्थबोधक टिप्पण दिये गये हैं। जैसा कि अन्तिम पुष्पिकासे ज्ञात होता है, इसका लेखनकाल कार्तिक शुक्ला ११ संवत् १७९१ है- " इति श्रीपण्डितप्रभाचन्द्रविरवितात्मानुशासनटीका समाप्ता । शुभमस्तु । श्रीः । संवत् १७९१ वर्षे काती सुदी ११ एकादश्यां रवौ इदं ग्रन्थ संपूर्ण जातम् । श्री सवाईजयपुरमध्ये । श्रीः॥
प-यह प्रति भी भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीटयूट पूना की है। परन्तु इसके प्रारम्भके सौ पत्र नहीं मिले। पत्र १०१-१२४ प्राप्त हैं। इसलिये इसके पाठभेदोंका संकेत (प) प्रस्तुत संस्करणमें प. ११४ के पूर्वमें नहीं किया जा सका है । लिपि सुन्दर और सुवाच्य है । इसके अन्तिम पुष्पिकावाक्य इस प्रकार हैं- "श्री नाभेयो जिनो भूयात् भूयसे श्रेयसे स वः । जगज्ज्ञानजले यस्य दधाति कमलाकृतिम् ।।१॥ इत्या शीर्वाद । इति पण्डितप्रभाचन्द्रविरचितात्मानुशासनटीका समाप्ता । शुभ भवतु । मिती ती कार्तिक मासे शुभे शुक्लपक्षे पूर्णावास्यां तिथौ गुरुवारे संवत् १९४६ का दसकत लादूरामका । शुभं"
मु (नि)-उक्त तीन हस्तलिखित प्रतियोंके अतिरिक्त बम्बई निर्णयसागर प्रेससे “सनातन जैन ग्रन्थमाला" के नामसे जो प्रथम गुच्छक प्रकाशित (ई. सन् १९०५) हुआ है उसमें प्रस्तुत ग्रन्थका मूल मात्र समाविष्ट है।
मु (ज)-स्थानीय विद्वान् श्री पं. बंशीधरजी शास्त्रीको हिन्दी टीकाके साथ इस ग्रन्थका एक संस्करण जैन ग्रन्थरत्नाकर बम्बईसे भी प्रकाशित (सन् १९१६) हुआ था।
ग्रन्थ का स्वरूप और ग्रन्थकार .. प्रस्तुत ग्रन्थ आत्महितैषी जीवोंके लिये आत्माके यथार्थ स्वरूपकी शिक्षा देनेके विचारसे रचा गया है। इसीलिये ग्रन्थकारके द्वारा इसका 'आत्मानुशासन' यह सार्थक नाम निर्दिष्ट किया गया है। इसकी समस्त श्लोकसंख्या २६९ है और उनमें इन १५ छन्दोंका उपयोग किया गया है (देखिए परिशिष्ट पु.,२५७)--