________________
१६
आत्मानुशासनम्
उसके कारण भूत उक्त फलोंके उत्पादक वे वृक्ष ही होते हैं १ । इसके अतिरिक्त, मेरे ये वचन जिस हृदयसे निकलनेवाले हैं उस हृदयमें तो गुरु ओंका वास निरन्तर है, अत: वे उनको वहां संस्कारसे संयुक्त- रस, भाव व अलंकारादिसे विभूषित- करेंगे ही। इसीलिये मझे यहां कुछ भी परिश्रम नहीं करना पडेगा२ । आगे वे कहते हैं कि इस पुरा णरूप समुद्रका पार अतिशय दूरवर्ती है तथा वह गहरा भी अधिक है, इसका भय मुझे कुछ भी नहीं है। कारण यह कि जो श्रेष्ठ गुरु सर्वत्र दुर्लभ हैं वे इस पुराणरूप समुद्र के पार करनेमें मेरे आगे चल रहे हैं३ । जब जिनसेनका अनुसरण करनेवाले भव्य जीव प्राचीन मार्गको- रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्गको-पाकर संसाररूप समुद्र के पार पहुंचना चाहते हैं तब इस पुराणको तो बात ही क्या है- उन जिनसेन गुरुका अनुसरण करके मैं इस पुराणको निःसन्देह पूरा करूंगा४ । इस कथनसे उन्होंने जिस प्रकार अपनी उत्कृष्ट गुरुभक्तिको सूचित किया है उसी प्रकार उन्होंने अपनी शालीनता (निरभिमानता) को भी प्रगट कर दिया है । ऐसे उत्कृष्ट महाकाव्योंकी रचनामें असाधारण प्रतिभा और उत्कृष्ट विद्वत्ता ही काम करती है। इस बातको वे मर्मज्ञ विद्वान् ही समझ सकते हैं, न कि इतर साधारण जन । इस सत्यको वे स्वयं ही इस प्रकारसे सूचित करते हैं- कविके काव्यविषयक परिश्रमको कवि ही समझ सकता है। ठीक है- जिस प्रकार वन्ध्या स्त्री कभी पुत्रप्रसूतिकी पीडाको नहीं समझ सकती है उसी प्रकार अकवि कविके काव्यरचनाविषयक परिश्रमको भी नहीं समझ सकते हैं५ ।
१. गरूणामेव माहात्म्यं यद्यपि स्वादु मद्वचः। ___ तरूणां हि प्रभावेण यत्फलं स्वादु जायते ॥ आ. पु. ४३-१७. २. निर्यान्ति हृदयाद्वाचो हृदि मे गुरवः स्थिताः।
ते तत्र संस्करिष्यन्ते तन मेऽत्र परिश्रमः ॥ आ. पु. ४३-१८. ३. सुदुरपार-गम्भीरमिति नात्र भयं मम ।।
पुरोगा गुरवः सन्ति प्रष्ठाः सर्वत्र दुर्लभाः ॥ आ. पु. ४३-३८. ४. पुराणं मार्गमासाद्य जिनसेनानुगा ध्रुवम् । ___ भवाब्धेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमुच्यते ॥ आ. पु. ४३-०. ५. कविरेव कवेर्वेत्ति कामं काव्यपरिश्रमम् ।
वन्ध्या स्तनन्धयोत्पत्तिवेदनामिव नाकविः ॥ आ. पु. ४३-२४.