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प्रस्तावना
१७ गुरुभक्त होनेके साथ वे प्रखर तपस्वी भी थे । उन्होंने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें स्वयं लिखा है - इसने (गुणभद्रने) पुण्य लक्ष्मीकी सुभगताके अभिमानको जीत लिया है,ऐसा सोचकर ही मानो मुक्तिरूप लक्ष्मीने उसके पास अतिशय निपुण दूतीके समान तपरूप लक्ष्मीको भेज दिया था। उसने भी आकर उत्तम गुणरूप धनके धारक उसका आश्रय बडे प्रेमसे स्वीकार किया है१ । प्रस्तुत ग्रंथ (आत्मानुशासन१४९-१६९) में उन्होंने जो समालोचनात्मक दृष्टिसे साधधर्मका विवेचन किया है उससे भी उनके महान् तपस्वी होनेका अनुमान होता है। उत्तरपुराणकी ही प्रशस्ति (४०, में उनके शिष्य लोकसेनने जो उनके लिये 'जितमदनविलासः' विशेषण दिया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे अखण्ड बालब्रह्मचारी थे।
ग्रन्थका रचनाकाल प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता वे गुणभद्राचार्य कब हुए, इसका विचार करनेके लिये हम प्रथमतः उनके गुरु श्री जिनसेनाचार्य के समयका विचार करेंगे। जिनसेनाचायंने अपने गुरु श्री वीरसेनके द्वारा प्रारम्भ की गई तथा इस बीच उनका स्वर्गवास हो जानेसे अधूरी रह गई कसायपाहुडकी जयधवला टीकाको शके संवत् ७५९ में पूर्ण किया, यह निश्चित है२ । उस समय अमोघवर्षका राज्य था । इसके बादमें ही सम्भवतः उन्होंने १. पुण्यश्रियोऽयमजयत्सुभगत्वदर्यमित्याकलय्य परिशुद्धमतिस्तपश्रीः। मुक्तिश्रिया पटुतमा प्रहितेवदूती प्रोत्या महागुणधनं समशिश्रियद्यम् ॥
उ. पु. प्रशस्ति १५. २. इति श्रीवीरसेनीया टोका सूत्रार्थदर्शनी। वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते ॥६॥ फाल्गुने मासि पूर्वाण्हे दशम्यां शुक्लपक्षके । प्रवर्धमानपूजोरुनन्दीश्वरमहोत्सवे ॥७॥ अमोघवर्षराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदया। निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥८॥ एकान्तषष्टिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य ।
समतीतेषु समाप्ता जयघवला प्रामृतव्याख्या ॥११॥ ज.ध. प्रशस्ति मा.प्र. २