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प्रस्तावना
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किसी न किसी रूपमें पडता ही है । तदनुसार प्रकृत आत्मानुशासनके ऊपर भी पूर्ववर्ती भारतीय साहित्यका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उसके कर्ता श्री गुण भद्राचार्य बहुश्रुत विद्वान् थे, उन्होंने पूर्ववर्ती जैन अजैन साहित्यका खूब परिशीलन किया था। वे सिद्धांत, न्याय, व्याकरण एवं आयुर्वेद आदि अनेक विषयोंके पारंगत थे। अतएव यदि उनकी इस कृतिपर अन्य साहित्यका प्रभाव रहा है तो यह कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है । प्रस्तुत ग्रंथपर आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द, यतिवृषभ, शिवार्य, समन्तभद्र और पूज्यपादके साहित्यके अतिरिक्त योगी भर्तृहरिके शतकत्रयका भी प्रभाव पडा दिखाई देता है ।
कुन्दकुन्द-साहित्यका प्रभाव प्रस्तुत ग्रन्थके १९५वें श्लोकमें शरीरको समस्त अनर्थपरम्पराका मूल कारण बतलाते हुए यह कहा है कि प्रारम्भमे शरीर उत्पन्न होता है, उसमें दुष्ट इन्द्रियां होती हैं, वे विषयोंको चाहती हैं; और वे विषय मानहानि, प्रयास पाप एवं दुर्गतिके देनेवाले होते हैं१ । ____ लगभग इसी अभिप्रायको प्रगट करनेवाली निम्न गाथायें श्री कुंदकुंदाचार्यके पंचास्तिकाय (१२८-३०) में उपलब्ध होती हैं
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो हवदि गदिसु गदी । गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयगहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि ।
इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा ॥ अभिप्राय इतका यह है कि संसारी जीव अशुद्ध (राग और द्वेष)
१. इसी आशयको पण्डितप्रवर आशाधरजी ने भी निम्न श्लोकमें इस प्रकारसे प्रगट किया है
बन्धाद्देहोऽत्र करणान्यतैश्च विषयग्रहः । बन्धश्च पुनरेवातस्तदेनं संहाराम्यहम् ॥ सा. घ. ६-३१.