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आत्मानुशासनम् .. .. -- [श्लो० २३५अशेषमद्वैतमभोग्यभोग्यं निवृत्तिवृस्योः परमार्थकोट्याम् । अभोग्यभोग्यात्मविकल्पबुद्धया निवृत्तिमभ्यस्यतु मोक्षकांक्षी ॥
स्वसात्कृतं सम्यक्त्वमेव सत्यकार: संचकार: तेन स्वसात्कृतम् आत्माधीनं कृतम् । साकल्यमूल्येन परिपूर्णमूल्येन ॥ २३४ ॥ सराग-वीतरागप्रकृष्टप्रवृत्ति-निवृत्त्यपेक्षया कीदृशमिदं जगदित्याह-- अशेषमित्यादि । अशेषं जगत् । अद्वैतम् एकरूपम् । अभोग्यभोग्यं सत् । कस्यां सत्यामित्याह-- निवृत्तीत्यादि। अयमर्थ:-- निवृत्तेः परमार्थकोट्यां परमप्रकर्षे सर्वं जगत् अभोग्यरूपमेव । वृत्त प्रवृत्तेः परमार्थकोटयां सर्वं जगत् भोग्यरूपमेव । ततो यदि
वस्तुका स्वामी उसे किसी अन्य व्यक्तिको न बेच सके । तत्पश्चात् वह उक्त वस्तुका पूरा मूल्य देकर उसे अपने हाथमें कर लेता है। ठोक इसी प्रकारसे जो भव्य जीव मोक्षको प्राप्त करना चाहता है उसे पहिले ब्यानाके रूपमें सम्यक्त्वको देना चाहिये- धारण करना चाहिये। तत्पश्चात् सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप पूर्ण मूल्यके द्वारा उक्त मोक्षको अपने हाथमें कर लेना चाहिये । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार ब्याना देनेसे अभिलषित वस्तु उस ब्याना देनेवालेके लिये निश्चित हो जाती है उसी प्रकार सम्यक्त्वकी प्राप्तिसे अर्धपुद्गलपरावर्तन प्रमाणकालके भीतर मोक्षका लाभ भी निश्चित हो जाता है। इतने कालके भीतर जब भी वह पूर्ण मल्यके समान सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको प्राप्त कर लेता है तब ही उसे अपने अभीष्ट उक्त मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है ॥ १३४ ॥ यह समस्त संसार एकरूप है- वास्तवमें भोग्य और अभोग्यकी कल्पनासे रहित है। फिर भी वह प्रवृत्ति और निवृत्तिकी अतिशय प्रकर्षतामें प्रवृत्तिकी अपेक्षा भोग्य और निवृत्तिकी अपेक्षा अभोग्य होता है । जो भव्य प्राणी मोक्षकी इच्छा करता है उसे भोग्य और अभोग्यरूप विकल्पबृद्धिसे निवृत्तिका अभ्यास करना चाहिये । विशेषार्थ---- विश्व एक रूप ही है। किन्तु जो जीत्र राग-द्वेषसे सहित है वह जिसे इष्ट समझता है उसके तो ग्रहण करनेमें प्रवृत्त होता है तथा जिसे वह अनिष्ट समझता है उसके छोडनेमें प्रवृत्त होता है। इस प्रकार वह समस्त विश्वको ही भोगना चाहता है। परन्तु