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-२३४] ज्ञान-चारित्रमूल्येन मोक्षः स्वकरे करणीयः २१९
तावद् दुःखाग्नितप्तात्मायःपिण्डः सुखसोकरः । निर्वासि नित्ताम्भोधौ यावत्त्वं न निमज्जसि ॥२३३॥ मञ्जु मोक्षं सुसम्यक्रवसत्यंकारस्वसास्कृतम् । ज्ञानचारित्रसाकल्यमूल्येन स्वकरे कुरु ॥ २३४ ॥
दुःखसंतप्तस्वरूपश्च त्वं मोक्षसुखाप्राप्ती विषयसुखलवेन सुखिनमात्मानं मन्यसे इत्याह- तावदित्यादि । तावदुःखाग्नितप्तात्मा सन् अय:पिण्ड इव तावत्त्वं सुखसीकरः इन्द्रियप्रभवसुखलवैः। (न) निर्वासि न सुखीनवसि । निर्वताम्भोधी मोक्षसुखसमुद्रे ।। २३३ ।। तत्र निमज्जनं च तत्स्वीकारे सति भवतीत्यतो ज्ञानादिमूल्येन तत्स्वीकारः क्रियतामित्याह-- मंक्ष्वित्यादि । मञ्जु शीघ्रम् । मोक्षं स्वकरे कुरु गृहाण । कथंभूतम् । सुसम्यक्त्वसत्यंकार
जबतक तू मोक्षसुखरूप समुद्र में नहीं निमग्न होता है तबतक तू दुखरूप अग्निसे तपे हुए लोहेके गोलेके समान विषयजनित क्षणिक लेशमात्र सुखसे सुखी नहीं हो सकता है । विशेषार्थ---- जिस प्रकार अग्निसे संतप्त लोहेके गोलेको यदि थोडे-से पानीमें डाला जाय तो वह उतने मात्रसे शान्त (शीतल) नहीं होता है, किन्तु जब उसे अधिक पानीके भीतर पूरा डुबा दिया जाता है तब ही वह शान्त होता है । इसी प्रकार जन्ममरणादिके अनेक दुःखोंसे संतप्त प्राणीको यदि थोडा-सा विषयजन्य क्षणिक सुख प्राप्त होता है तो इससे वह वास्तवमें सुखी नहीं हो सकता है। वह पूर्णतया सुखी तो तब ही हो सकता है जब कि कर्मबन्धनसे रहित होकर अनन्त शाश्वतिक सुखको प्राप्त कर ले ॥ २३३ ।। हे भव्य ! तू निर्मल सम्यग्दर्शनरूप ब्याना देकर अपने आधीन किये हुए मोक्षको सम्यग्ज्ञान
और सम्यक्चारित्ररूप पूरा मूल्य देकर शीघ्र ही अपने हाथमें करले।। विशेषार्थ--- लोकव्यवहारमें जब कोई किसी वस्तुको खरीदना चाहता है तो वह इसके लिये पहिले कुछ ब्याना (मैं निश्चित ही इसे खरीदूंगा, इस प्रकारका वायदा करते हुए उसके मूल्यका कुछ भाग जो पूर्वमें दिया जाता है) देकर उक्त वस्तुको अपने आधीन कर लेता है, जिससे कि उक्त
1 मु (जे.नि.) पिण्ड इव सीदसि ।