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आत्मानुशासनम् [श्लो० २३१ - स्नेहानुबबहृदयो ज्ञानचरित्रान्वितोऽपि न श्लाघ्यः । बीप इवापादयिता कज्जलमलिनस्य कार्यस्य ॥ २३१॥ रतेररतिमायातः पुना रतिमुपागतः । तृतीयं पदमप्राप्य बालिशो बत सीदसि ॥ २३२ ॥
च भवता निर्मोहतव कर्तव्येत्याह-- स्नेहानुबद्धहृदयः अनुरागयुक्तहृदयः । अन्वितोऽपि सहितोऽपि । आपादयिता कर्ता । कज्जलमलिनस्य दुःकर्मणः ।। २३१॥ तदनुबद्धहृदयश्च भवानिष्टानिष्टविषये रत्यरतिभ्यां क्लिश्यतीत्याह-- रतेरित्यादि। रते: अनुरागात् । अरति द्वेषम् । तृतीयं परम् उदासीनतालक्षणम् । बालिश: अज्ञः । सीदसि दु:खितो भवसि ॥२३२॥
से सम्बद्ध है वह ज्ञान और चारित्रसे युक्त होकर भी चूंकि स्नेह (तेल) से सम्बद्ध दीपकके समान कज्जल जैसे मलिन कर्मोंको उत्पन्न करता है अतएव वह प्रशंसाके योग्य नहीं है । विशेषार्थ--जिस प्रकार दीपक स्नेह (तेल) से सम्बन्ध रखकर निकृष्ट काले कज्जलको उत्पन्न करता है उसी प्रकार जो साधु स्नेहसे सम्बन्ध रखता है- हृदयमें बाह्य वस्तुओंसे अनुराग करता है-वह ज्ञान और चारित्रसे युक्त होता हुआ भी उक्त अनुरागके वश होकर कज्जलके समान मलिन पाप कर्मोको उत्पन्न करता है । अतए व उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती है । हां, यदि वह उक्त स्नेहसे रहित होकर- बाग-द्वेषको छोडकर- उन ज्ञान और चारित्रको धारण करता है तो फिर वह चूंकि उक्त मलिन कर्मोको नहीं बांधता है- उनकी केवल निर्जरा ही करता है- अतएव वह लोकका वंदनीय हो जाता है। दीपक भी जब स्नेहसे रहित हो जाता है- उसका तेल जलकर नष्ट हो जाता है- तब वह कज्जलरूप कार्यको नहीं उत्पन्न करता है ॥ २३१ ॥ हे भव्य ! तू रागसे हटकर द्वेषको प्राप्त होता है और तत्पश्चात् उससे भी रहित होकर फिरसे उसी रागको प्राप्त होता है । इस प्रकार खेद है कि तू तीसरे पदको-- राग-द्वेषके अभावरूप समताभावको-- न प्राप्त करके यों ही दुखी होता है ॥ २३२ ॥ हे भव्य !