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आत्मानुशासनम्
पापका कारण सुखानुभव नहीं, किन्तु धर्मविघातक आरम्भ है मृगया (शिकार) आदिको सुखप्रद न मानकर धर्माचरणको ही सुखप्रद समझना चाहिये
मृगयामें कठोरताका दिग्दर्शन
पिशुनता ( परनिन्दा) व दीनता आदि उभय लोकोंमें
अहितकारक हैं
पुण्य निरुपद्रव वैभवका कारण है
पुरुषार्थ की निरर्थकतामें इन्द्रका उदाहरण
निःस्वार्थ पुण्यकार्यो के कर्ता कितने ही आज भी विद्यमान हैं क्षुद्र इन्द्रियसुख के पीछे पिता-पुत्र भी एक दूसरेको धोखा देते हैं, किन्तु वे अनिवार्य मृत्युको नहीं देखते विषयान्धताकी सदोषता
प्राणीकी इच्छापूर्ति असम्भव है
विवेकी जन इष्ट सामग्रीका कारण पुण्यको मानकर परभवके सुधारनेका प्रयत्न करते हैं
विषयाधीन प्राणीकी विवेकबुद्धि नष्ट हो जाती है
प्राणीकी भोगशक्तिके परिमित होनेसे ही यह विश्व बचा हुआ है, अन्यथा तृष्णा तो उसकी अपरिमित है ग्रहण करनेके पूर्व ही परिग्रहका परित्याग श्रेयस्कर है गृहस्थाश्रम हितकर नहीं है
यथार्थ सुख तृष्णाका निग्रह करनेपर ही प्राप्त होता है तृष्णायुक्त प्राणीका सुख सुखाभास ही है दैवकी प्रबलताका उदाहरण
न्यायपूर्वक धनका संचय संभव नहीं है
यथार्थ धर्म, सुख व ज्ञानका स्वरूप
धनसंचयकी कष्टसाध्यता
अभ्यन्तर शान्तिका कारण राग-द्वेषका परित्याग ही है यदि प्राणी आत्मशक्तिका अनुभव करे तो शीघ्र ही उस तृष्णा नदी के पार हो सकता है
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